Saturday, August 25, 2012

खुद के साथ एक अकेला दिन


किसी ने सच ही कहा है इच्छा कभी खत्म नहीं होती कुछ मिलता है तो उससे ज्यादा पाने की इच्छा होती है....ऐसी ही एक इच्छा मेरे मन मे हमेशा से कुलबुलाती रहती थी...जिसे पूरी करने के लिए मैं तत्पर रहती थी....अकेले रहने की इच्छा...वैसे इंसान अकेलेपन से भागता है...लेकिन भागने के लिए अपने डर की वजह पता होना भी ज़रूरी होता है...मुझे तो पता ही नहीं था कि अकेले रहना क्या होता है...? जब भी अपनी किसी सहेली को देखती जो यहाँ परिवार से दूर रहकर काम कर रही है और अक्सर अपने परिवार को याद करती है...मन करता उससे अपना एक दिन बदल लूँ....वो तो मुझसे दिन बदल लेतीं और घर आकर परिवार का मज़ा ले लेतीं लेकिन मुझे बदले मे उनका दिन नहीं मिल पता...अक्सर सहेलियों से सुनने मिलता कि उन्होने हॉस्टल मे कैसे दिन बिताए...वैसे तो अधिकांश दुखी होकर ही ये सारी बातें बताती थीं...वैसे भी सुख बांटना सभी को पसंद नहीं होता...तो मेरा मन करता कि काश मैं भी एक बार ये दुख उठाकर देखती...जिसे दुख न हो उसे सुख भी दुख देता है...

मेरे दुख मांगने का माजरा ये था कि घर मे सबसे छोटी होने के कारण सभी हाथों हाथ रखते..कुछ भी चाहिए हो तो बस नाम कह दो घर पर ही ल दी जाती...स्कूल जाना हो तो रिक्शे मे घर से जाओ और आते समय रिक्शा वाले बहिया के साथ दर्जनों बच्चों के साथ आओ,स्कूल मे अकेले होने का सवाल ही नहीं...आगे की पढ़ाई प्राइवेट हो गयी...परीक्षा के अलावा न कभी कॉलेज का मुह हमने देखा न उसने....दूसरे राज्य मे परीक्षा देने जाने के लिए भी कोई न कोई साथ होता या अपने रिश्तेदार के घर रुकना होता...वहाँ तो मजाल है कोई पल भर भी अकेला छोड़ दे...सोसाइटी के कल्चर प्रोग्राम मे भीड़,डांडिए मे भीड़,कभी मम्मी कहीं बाहर गईं हों तो आस पड़ोस के लोग ज़रा ज्यादा ही ख्याल करने लगते...उस समय तो सोने के लिए भी इजाजत लेनी पड़ जाती....बाद मे मुंबई जैसे शहर मे जहां लोग साथ रहते हुये भी अकेले होते हैं...मुझे अकेलापन कहीं नहीं मिला... 

मैं यही सोचती कि कभी तो भगवान मेहरबान होंगे और मुझे भी अकेलेपन का आनंद मिलेगा...और कुछ दिन पहले जब मम्मी-पापाजी रिश्तेदार के घर एक दुख की घड़ी मे गए तो घर पर मैं अपने दोनों भाइयों के साथ रह गयी...एक भाई तो ऑफिस चला जाता दूसरा घर से ही काम करता...एक दिन उसे ज़रूरी मीटिंग मे जाना पड़ा और दूसरे भाई को भी घर आने मे देर होने वाली थी...तो इतने सालों बाद मुझे अपना पहला अकेलापन मिला...

मैं बहुत खुश थी...आखिर मुझे बरसों से सोची गयी चीज मिल गयी थी...बस यही सोच थी कि कैसे मैं इस अकेलेपन को बिताऊँ...क्या ये करूँ....?नहीं...ऐसा करती हूँ...? नहीं...नहीं कुछ तो अलग करना चाहिए....अचानक ऐसा लगा जैसे मैं अकेलेपन को नहीं किसी त्योहार को मनाने की तैयारी कर रही हूँ...फिर मन अचानक शांत हो गया..मैंने के पुस्तक निकाली और पढ़ने लगी..कुछ देर बाद उठी और गुनगुनाते हुये शाम के खाने की तैयारी की...बहुत प्यार से खाना बनाया...बाकी दिनों से कुछ ज़्यादा चीजें बनाई...और सारा काम करते-करते भैया घर आ गए...

रात को जब सोने वाली थी तो मन ने मुझसे एक ही सवाल किया...ये सब तो तू रोज़ करती है..इसके लिए अकेलेपन की क्या ज़रूरत थी...?सवाल तो सही है...क्या मैंने अकेलेपन को अच्छी तरह से नहीं जीया या अकेलेपन मेरे लिए नया नहीं था...क्यूंकी मैं सबके साथ रहते हुये भी जब अपने मन की बातें सुनती हूँ तो खुद के साथ ही होती हूँ...उस दिन मैंने ये जाना कि अकेलेपन के लिए अकेला रहना ज़रूरी नहीं...लोगों के बीच रहकर अकेले रहना बहुत बड़ी कला है...

अकेलापन कस्तुरी के समान है...जिसकी खुशबू मे पागल होकर हम मृग की तरह उसे इधर-उधर ढूंढते रहते हैं...लेकिन वो तो हमारे अंदर ही है....मैं इतने सालों से जिस अकेलेपन की चाह मे थी वो तो मुझसे समय-समय पर मिलता रहा...एक दिन अकेलेपन के साक्षात्कार से मैं उसे इतनी अच्छी तरह जान पाऊँगी...सोचा ना था...  

Friday, August 24, 2012

गोली



कुछ दिन पहले एक पुस्तक पढ़ी..“गोली”...आचार्य चतुरसेन द्वारा लिखी इस पुस्तक मे राजस्थान की एक पुरानी परंपरा को दर्शाया गया है...प्राचीन समय मे ऐसा रिवाज था कि छोटी जाती की लड़कियों को राजा अपनी दासी बनाकर रखते थे...इन्हे गोली कहा जाता था...गोलियों के रहन सहन का पूरा खर्च राजा ही उठाते थे लेकिन उनकी संतान,जो की राजा की ही संतान हुआ करती थी,को राजा का नाम या रुतबा नहीं मिलता था...उन्हे अपने कथित पिता के साथ रहना पड़ता था...जो कि आमतौर पर गोली के सेवक की तरह रखा जाता था...
इस पुस्तक मे इस प्रथा को बहुत ही अच्छी तरह दर्शाया गया है...और ये पूरी कहानी एक गोली के संघर्ष की गाथा है..जिसे पता भी नहीं चलता कि वो कब गोली बन गई है और सारे सुख भोगते हुये भी मन मे एक अलग सी टीस का अनुभव करती है...राजा का उसके प्रति असीम प्रेम उसे उसकी अपनी सहेली से जो की उस राजा की पत्नी है से दूर कर देती है...
एक साधारण और सीधी लड़की के आम जीवन से शुरू हुई ये कहानी उसके मानसिक और सामाजिक विकास तक सुगमता से पहुँचती है...वो न सिर्फ खुद को शिक्षित कर अपना विकास करती है बल्कि बाकी गोलियों के जीवन को सुधारने के लिए भी कदम उठती है...उसे कई बार अपना जीवन दांव पर लगाना पड़ता है लेकिन फिर भी वो इन सारी बुराइयों से लड़ने के लिए आगे रहती है...
किस तरह शिक्षा से एक इंसान का जीवन बादल सकता है और किस तरह एक आम इंसान भी कुरीतियों को मिटाने के लिए आगे आ सकता है...ये बखूबी समझाया गया है...
आचार्य चतुरसेन लेखक की तरह अपने विचार पाठकों पर नहीं रखते बल्कि वो गोली बनकर खुद अपनी जीवन गाथा कहते हैं और अपनी आपबीती सुनाते हैं...वो हमें पूरी तरह से उस समय मे ले जाते हैं...राजाओं की फिजूलखर्ची और सिरफिरेपन को भी खूब अच्छी तरह सामने लाते हैं और एक गोली के रूप मे उनकी खिल्ली उड़ाने मे भी पीछे नहीं रहते....

बहुत ही अच्छा लेखन,घटनाओं का चित्रण इतना खूबसूरत है कि पाठकों के सामने एक-एक दृश्य सजीव हो उठता है...भाषा की अभिव्यक्ति का ऐसा अनूठा उदाहरणसोचा ना था....



Thursday, August 23, 2012

क्यूँ बने सती-सावित्री जब सत्यवान कहीं नहीं...



पूरी ज़िंदगी हम लड़कियों को ये कह कर पाला जाता है कि दूसरे के घर जाना है ये करो...ये मत करो...कभी कुछ गलती हो जाए तो भी यही सुनने मिलता है...कल को दूसरे घर जाएगी तो वहाँ सब कहेंगे माँ-बाप ने नहीं सिखाया...खाना बनाना आना चाहिए,घर के काम आने चाहिए,पढ़ाई-लिखाई तो ठीक है लेकिन सिलाई-कढ़ाई मे भी निपुण रहो...कोई कुछ भी कह दे कभी पलट कर जवाब मत दो...हर बड़े का आदर करो चाहे वो कैसा भी हो...पूजा-पाठ मे लगे रहो..मेहमान चाहे कितना भी बेशर्म हो उसके साथ अच्छी तरह पेश आओ...एक तरह से दुनिया भर की सारे गुण तुम्हारे अंदर होने चाहिए और इसी तरह हमारे सीरियल्स की हीरोइनों को भी दिखाया जाता है क्यूंकी हमारी नज़र मे शायद एक अच्छी बेटी और बहू का पैमाना ही ये है...

और हम बस इस पैमाने पर खरे उतरने के लिए सारी ज़िंदगी कोशिश मे लगी रहती हैं...इस उधेड्बुन  मे कि क्या सही है क्या गलत...हम कभी ज़िंदगी जी ही नहीं पाते...और कई बार अपनी कोशिशों मे गलत साबित होते हैं...गलतियाँ करते हैं...दुखी होते हैं पश्चाताप होता है कि अब तक जो अच्छी लड़की का रूप सबके सामने आया था...वो कहीं मिट तो नहीं गया...और फिर उसे वापस पाने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है...इस तरह जब ज़िंदगी के वो सारे पल निकल जाते हैं जिन्हे हमें जीना था...अपने परिवार के साथ...और जब दूसरे घर जाने का असली वक़्त आता है ऐसे समय मे हम क्या चाहते हैं...?सालों परिवार के साथ रहकर जिस ट्रेनिंग से गुजरते हुये अपनी ज़िंदगी काटी...उसे भूलकर कुछ दिन तो खुलकर जीने मिले न जाने आने वाला समय कैसा हो...न जाने वो लोग कैसे होंगे...कम से कम इन कुछ दिनों को तो अपने परिवार के साथ खुलकर जी लें...जहां न तो पहले वाली बन्दिशें हों न आने वाले दिनों का डर...पर शायद कुछ ही लोग होते हैं जो इन पलों को भी इस तरह जी पाते हैं क्यूंकी इन दिनों मे जब हम अपनों का साथ और उनका स्नेह चाहते हैं हमें मिलती है हर पल सलाह...जाने वाले घर मे कैसे व्यवहार करना है...कैसे रहना है...तो क्या हमारे अपने परिवार को सिर्फ उस दूसरे घर की फिक्र होती है जहां हम जाने वाले है...उन्हे क्यूँ लगता है कि उनकी बेटी किसी दूसरे घर मे सिर्फ तभी खुश रह सकती है जब वो उनके लिए हर पल काम करे या अच्छा खाना बनाकर खिलाये...

क्यूँ नहीं वो ये सोचते कि जब वो दूसरे घर के लड़के को अपने घर के हिसाब से नहीं बदलना चाहते,वैसे ही वो भी इनकी बेटी को जैसी वो है वैसे ही अपनाए...क्यूँ हम लड़की के लिए ज्यादा से ज्यादा गुण बताना चाहते हैं...हर एक का अपना गुण होता है और मैंने आजतक किसी ऐसे को नहीं देखा जिसमे सिर्फ गुण हों...उन्होने तो अपने लड़के को कभी नहीं टोका...पर आपने तो अपनी लड़की को कभी अपने मन से एक कदम भी नहीं उठाने दिया...जबकि आपको तो अपनी लड़की के पैदा होते साथ ही ये पता था कि वो हर वक़्त आपके साथ नहीं रहेगी..फिर तो उसे और भी खुलकर जीने देना चाहिए...मैं ये नहीं कहती कि उसका मार्गदर्शन नहीं करना चाहिए...लेकिन सिर्फ एक लड़की होने के कारण उसके लिए एक अलग नज़रिया अपनाना सरासर गलत है... 

आज आपके कहे अनुसार चलती है...कल दूसरे घर जाकर उनके हिसाब से चलेगी....तो वो वक़्त कब आएगा जब वो अपने मन की करेगी,जब वो बिना किसी रोकटोक की फिक्र किए खुलकर जिएगी...क्या कभी ऐसा कोई पल उसकी ज़िंदगी मे आएगा...?

अपनी ज़िंदगी से खुद के लिए दो पल निकालना कइयों के लिए इतना मुश्किल होगा...सोचा ना था....