Wednesday, December 19, 2018

एक नया नज़रिया, किताब के ज़रिए

कई दिनों से किताब पढ़ना बंद-सा था। किसी भी किताब को देखकर लगता था कि पढ़ना है पर आराम से पढ़ूँगी, बस यही सोचकर इतने दिनों से पढ़ना स्थगित सा ही था। एक रात यूँ ही पास रखी किताब के पन्ने पलटने लगी और एक-दो पन्ने पढ़ने के बाद किताब पढ़ती ही चली गयी। काम के बीच दो ही दिनों में ये किताब पूरी पढ़ ली..जब भी वक़्त मिलता बस किताब खोलकर बैठ जाती चाहे एक पन्ना पढ़ पाऊँ या दो, कुछ इसी तरह की ख़ुद से बाँधकर रखने वाली किताब है "राईशा लालवानी” की लिखी किताब “The Diary on the Fifth Floor”

यूँ तो ये किताब अंग्रेज़ी में लिखी गयी है लेकिन इसकी भाषा इतनी सरल और सहज है कि समझना बहुत ही आसान है। ये कहानी है एक लड़की की जो कई तरह के मानसिक उथलपुथल से गुज़र रही है और एक मनोचिकित्सक को अपनी डायरी देते ही उसे ये डर सताता है कि अब एक अनजान इंसान के सामने उसके सारे राज़ बाहर आ जाएँगे।

ये यूँ तो राईशा लालवानी की पहली किताब है लेकिन इसे पढ़कर साफ़ अंदाज़ा होता है कि उन्होंने लिखने से पहले काफ़ी पढ़ाई ज़रूर की है। भाषा का प्रवाह और पाठकों को बाँधकर रखने की कला उनकी लेखनशैली में है। साथ ही पूरी किताब में जहाँ भी किसी जगह, व्यक्ति या भाव को लिखने की बात आती है वहाँ इतनी अच्छी तरह से उसे विस्तार में समझाया गया है कि मानो एक चित्र ही सामने आ जाता है। किताब से ली गयी इस लाइन पर नज़र डालें किस बेहतरीन ढंग से मनोचिकित्सक के पास जाते समय एक व्यक्ति की नर्वसनेस और मनोस्थिति को बयान किया है:

“I realized it was the time to let go of the half-damp tissue I had been crushing and squeezing ever since I had entered the hospital.” 


और एक ख़ास बात जो इस किताब की है वो ये कि ये अपनी ही तरह का एक नया उपन्यास है जिसमें शॉर्ट स्टोरीज़ भी हैं और वो सारी कहानियाँ एक बड़ी कहानी का हिस्सा हैं। मुझे ये तरीक़ा ख़ासा पसंद आया। हाँ राईशा एक ख़ास वर्ग की परेशानियों और उलझनों को केंद्र में रखकर बात करती हैं ये बात उनके लेखन को सीमित करती है।लेकिन उनके पास सामाजिक बदलाव को देखने की एक नज़र है ये बात कहानियों में झलकती है। एक फ़िक्शन उपन्यास होते हुए भी इसमें कल्पना से ज़्यादा वास्तविकता नज़र आती है। इन कहानियों को पढ़ते हुए आप अपने आसपास की कई घटनाओं को याद कर पाएँगें और ये कहानी कम बल्कि आपके आसपास की कोई घटना ज़्यादा लगेगी। 

इन दिनों हम सब कितनी ही बेवजह की उलझनों में उलझे रहते हैं..।इन मानसिक उलझनों का हल हमारे पास ही है बस वो कहीं नज़र नहीं आता और हम इन उलझनों को सुलझाने की बजाय और ज़्यादा उलझते जाते हैं।ख़ुद को डिप्रेशन, मानसिक परेशानियों के जाल में बाँधते चले जाते हैं। वहीं सामाजिक स्थिति और बदलावों पर भी कई तरह के सवाल हमारे ज़हन में कौंधते हैं। इस किताब में उन उलझनों को सुलझाने का एक नया नज़रिया भी सामने आता है।  

किताब की शुरुआत में राईशा ये सवाल सामने रखती हैं... 

“ The main Question here is: Do we like who we have become?”

ये शायद एक ऐसा सवाल है जो कभी न कभी हर व्यक्ति के दिमाग़ में कौंधता है। 

एक बात जो इस किताब में अच्छी है वो ये कि इस उपन्यास की कहानी में आपको समाज में फैली उलझनें, परेशानियाँ भी नज़र आती हैं वहीं उन्हें देखने और उन्हें दूर करने का एक अलग नज़रिया भी मुहैया करवाया जाता है। तो न सिर्फ़ एक मुद्दा उठाया गया है बल्कि उसका समाधान भी सुझाया गया है। पहली कोशिश के रूप में देखा जाए तो ये उपन्यास बिलकुल पढ़ने लायक है।  

बहुत समय बाद किताबों से जुड़ने का रास्ता एक किताब से ही निकलेगा...सोचा ना था...



Thursday, July 26, 2018

प्रेम का विलोप-काल

कल बातों-बातों में देश और प्रेम की बातें हुईं...मेरा मानना है कि देश की स्थिति पर चर्चा या तो बहुत गहन तरीक़े से हो सकती है या नहीं हो सकती, ऊपरी तौर पर छूकर निकल जाएँ ऐसा हो ही नहीं सकता। मुझे इस विषय पर कुछ भी लिखने से पहले ख़ुद भी कई बातों और अपने विचारों में सामंजस्य बिठाने और ख़ुद को टटोलने की ज़रूरत है, जहाँ कार्य प्रगति पर है।

रही प्रेम की बात..तो अभी लगता है कि देश में "प्रेम का विलोप-काल" चल रहा है। प्रेम अब अपनी सहजता और वो अपनापन खोता हुआ नज़र आ रहा है, जिसके बल पर उसका वजूद है। लोगों में इस क़दर ईर्ष्या, द्वेष और घृणा का भाव है कि प्रेम के बारे में सोचना-समझना तो दूर..उसे बर्दाश्त करना तक दूभर होने लगा है। अब हम किसी की ख़ुशी..होंठों की मुस्कुराहट छीनने में आनंद की अनुभूति करने लगे हैं, लेकिन ये भी क्षणभर की होती है।

किसी की बोलती बंद कर दी, ख़ून बढ़ गया, कोई अपनी बात पर अड़ा हुआ है तो उस पर निजी प्रहार करके धराशायी कर दिया। यही अगले दिन हमारे साथ हो गया और हम अपनी ख़ुशी वापस पाने के लिए फिर किसी नए शिकार की तलाश में चल पड़े। हाँ...अब हम इंसान कम शिकारी ज़्यादा रह गए हैं, जिसे किसी का शिकार करके, जान लेकर, ख़ून निकालकर, खाल और खोपड़ी दीवार में सजाकर गर्व होता है। हम प्रेम नहीं कर सकते ये तो रही एक बात..पर अब हम किसी को प्रेम करते देख भी नहीं सकते, ये चिंताजनक बात है..

प्रेम शब्द में वैसे तो काफ़ी विस्तृत भाव होते हैं और पहले कई लेखकों-कवियों ने कहा भी है कि प्रेम को शब्दों में बयान करना या किसी तरह ज़ाहिर कर पाना मुश्किल काम है। लेकिन अभी वाले माहौल को देखा जाए तो प्रेम का अर्थ केवल स्त्री और पुरुष के सम्बंध तक सीमित कर दिया गया है। इस सीमित नज़रिए में और संकुचन ये आ गया है कि अब तो एक स्त्री और पुरुष को साथ देखकर किसी और रिश्ते की कल्पना ही नहीं हो पा रही है..और यही हर स्त्री को देखने का नज़रिया भी बन गया है। 

एक पुरुष और स्त्री को आपसी सहमति से प्रेम का अधिकार है, ये तो ठीक है..संविधान ने भी ये अधिकार दिया है, पर इस पर भी अड़चनें हमेशा बनी रही हैं। लेकिन अब तो स्त्री-पुरुष का साधारण मिलकर बैठना, बात करना, गले लगना, हँस लेना, जैसी चीज़ें भी लोगों की नज़रों में खटकने लगी हैं। अपनी नज़रों से जितना कर सकते हैं उतनी इज़्ज़त तो हर एक इंसान दूसरे की उतार ही लेता है...सोचिए कि किसी लड़की को किसी लड़के के साथ कॉफ़ी पीते देख कितनों के मन में गूँजता है कि "फँसा रखा है...लड़के को" या यही लड़के के लिए भी सोच लेते हैं "लड़की फँसा रखा है..".. इसी तरह हर लड़की की तरक़्क़ी में उसके "चालू होने और उसके शरीर की भूमिका आँकने" में भी हम पीछे नहीं रहते...इसी तरह की और भी न जाने कितनी बातें गूँजती रहती है। फिर कोई भी छोटे से छोटा मौक़ा मिलता है..किसी को गले लगते देख लिए, लड़की और लड़का साथ जा रहे हैं वग़ैरह-वग़ैरह...बस दो हाथ, दो पैर अधिकांश के पास तो हैं ही और किसी को भी, बेवजह ही सही, मारने की इच्छा और ग़ुस्सा भी भरपूर है।

आए दिन दिख रही घटनाओं से ये बात तो तय है कि बहुत जल्द प्रेम का पूरी तरह लोप हो जाना निश्चित है...कुछ दिन लोग उसका ढोंग ज़रूर करेंगे पर वो भी जल्द ही ख़त्म हो जाएगा। सोने-चाँदी, गहने-कपड़े, घर-कारोबार जैसी चीज़ें तो सब संभाल रहे हैं जोड़ रहे हैं..किसी तरह प्रेम को भी थोड़ा-सा ही सही संरक्षित करने की कोई योजना बना लो..आगे दिखने भी नहीं वाला ये..और हम इसके बारे में कल को किसी को बताएँगें कि "मनुष्य हृदय में प्रेम जैसा भी एक भाव हुआ करता था, तो नयी पीढ़ी हमें पागलख़ाने में डाल देगी। 

प्रेम की विलुप्ती का ये काल भी देखने मिलेगा..सोचा ना था....

Saturday, April 14, 2018

मन रे तू काहे धीर धरे..


कुछ दिनों में क्या-क्या भाव मन में आते-जाते रहे हैं ये कहना चाहूँ तो भी कह नहीं पाऊँगी शायद...वो ख़बर पढ़ते हुए दिल दहल गया...पहले लगा ज़ोर से चिल्ला पड़ूँ..फिर मन के किसी कोने से एक घुटी-सी चीख़ ही निकल पायी...एक ओर दहशत ने क़ब्ज़ा जमाया तो दूसरी ओर ग़ुस्सा भी था। मन से इतने शब्द निकले कि लगा बैठकर उसे ही लिख दूँ, लिखने बैठते ही मन की गलियाँ वीरान होकर डराने लगीं..आख़िर कुछ न हुआ सिर्फ़ मौन के सिवा...क्या कह दूँ जो बार-बार नहीं दोहराया...ऐसा कौन-सा दुःख बयान कर दूँ जो नया हो...ये डर...ये दहशत...ये ग़ुस्सा...ये दुःख...ये भाव, सालों से मन को सालते आ रहे हैं...क्या बदला है कुछ भी तो नहीं? स्थिति बद से बदतर हुई है और सुधरने के आसार नज़र ही नहीं आते।

आठ साल की बच्ची के साथ ये दरिंदगी...ये हैवानियत...तिल-तिल कर मारना किसे कहते हैं ये शब्द-दर शब्द उस चार्जशीट में पढ़ा मैंने। इन्हें सज़ा क्या दी जाए? ऐसी कौन-सी सज़ा होगी जो इनके गुनाहों के लिए काफ़ी हो? सात जन्म लेकर सिर्फ़ सज़ा भुगतते रहें तो भी कम ही होगी। किस मंदिर की बात की जाती है? कौन-से भगवान? सब ख़ामोश होकर गवाह बने उस दरिंदगी के..उस मासूम के शरीर में तो शायद इतनी जान भी बाक़ी नहीं होगी कि वो चीख़ भी पाए और जो चीख़ पाते हैं उनकी कौन-सी सुनी जा रही है?...कुछ महीनों की बच्चियों से लेकर अस्सी-नब्बे साल की बुज़ुर्ग महिलाओं तक कोई भी सुरक्षित है?

और उस पर इन बातों पर भी राजनीति...वाह, ख़ुद की शक्ल आइने में देख कैसे पाते हैं ये नेता?...शर्म किसे कहते हैं वो तो शायद अब किसी को पता ही नहीं। ऐसे में हम चीख़ें तो किसके लिए ये समाज बहरा हो चुका है, जिसे लड़कियों की चीख़ सुनाई देना बंद हो चुकी है। जिसकी आँखें हवस का शिकार होती लड़कियों की हालत पर भी भीगती नहीं है। जितनी निकृष्ट मानसिकता उन दरिंदों की है उससे ही होड़ लगाती मानसिकता समाज के ठेकेदारों की भी है।

हम ख़ुद भी इस विषय पर लिखकर, रोकर, चीख़-चिल्लाकर ख़ुद को बरी कैसे मान लें?...तीन महीने बाद तो हम ख़ुद जागे हैं, अब हमें पता चला है कि एक आठ साल की मासूम क्या भुगतकर यहाँ से गयी है और जाने कितनी ही ऐसी मासूम बच्चियाँ और हर उम्र की लड़कियाँ..ऐसी भयावह यातनाएँ झेलकर यहाँ से जाती हैं...एक हादसे में मरती लड़की अपने साथ छेड़छाड़ को महसूस करके अपनी आँखें बंद करती है...या शायद उस एक घिनौने स्पर्श से ही उसके जीने की आख़िरी कोशिश भी वो छोड़ती है। क्या इतना भावनाशून्य हो चुका है ये समाज कि अब उसे सिर्फ़ देह के सिवा स्त्री में कुछ नज़र नहीं आता? और भोग के सिवा वो किसी स्त्री के बारे में कोई और विचार अपने मन में लाने में असमर्थ है? क्या यही है समाज? क्या यही है नारी को पूजने वाला देश?

मैं व्यथित हूँ...हम व्यथित हैं...पर क्या होना है इस व्यथा से? क्या हुआ है अब तक इस व्यथा से? कितने मौक़े आ गए हैं हमारे सामने व्यथित होने के और जाने कितने आएँगे...कौन-सी ऐसी महिला बाक़ी रह गयी है जिसे कभी छेड़छाड़ या किसी घिनौने स्पर्श का सामना न करना पड़ा हो...अब तो शायद पैदा होते ही बच्चियाँ भी इस गिनती में शामिल होने लगें...बस उस दिन के आने का इंतज़ार करें अब?..हम सालों तक सब सहकर चुप रहे किसी से कुछ नहीं कहा...क्या बदल गया?कुछ भी तो नहीं, बल्कि ये सब बढ़ता ही जा रहा है...तो अब चुप रहकर भी क्या बदल जाना है? बोलने से शायद न भी बदले लेकिन चुप रहने से तो कुछ नहीं होगा ये पक्का है...तो अब चुप रहने का कोई अर्थ ही नहीं है क्यूँकि चुप रहने से कुछ नहीं बदलने वाला...आज तक नहीं बदला।

एक ऐसा समाज जहाँ माएँ अपनी बेटियों को चुप रहने की सलाह देती हैं और अपने साथ हुई ऐसी ही घटनाओं को बताकर सालों से कुछ न बदलने की कहानियाँ सुनातीं हैं और जहाँ पिता अपने बेटे को अपनी घिनौनी हरकत में शामिल होने के लिए बुलाता है...ऐसी सोच को झकझोरने का वक़्त आ गया है वरना ये गहरी नींद इंसानियत को डुबोकर भी ख़त्म नहीं होगी...हमारा चुप रहना इस समाज को किस गर्त में ले गया है..हम अब भी चुप रहे तो कब निकलेगी ये आवाज़...?

अब जितनी हिम्मत है...उतनी ही जुटाकर बोलना होगा...आवाज़ न निकले तो चीख़ना होगा, घुटी-घुटी ही सही कोई आवाज़ बाहर ज़रूर आएगी...मौन से कोई हल नहीं निकलेगा...आज तक नहीं निकला। अब और नहीं...जितने दिन हम हैं उतने दिन के लिए जो कर सकते हैं करना है...अब चुप रहने से काम नहीं चलेगा...इस हद तक समाज का पतन देखने मिलेगा ये हमने..सोचा ना था....