Saturday, April 14, 2018

मन रे तू काहे धीर धरे..


कुछ दिनों में क्या-क्या भाव मन में आते-जाते रहे हैं ये कहना चाहूँ तो भी कह नहीं पाऊँगी शायद...वो ख़बर पढ़ते हुए दिल दहल गया...पहले लगा ज़ोर से चिल्ला पड़ूँ..फिर मन के किसी कोने से एक घुटी-सी चीख़ ही निकल पायी...एक ओर दहशत ने क़ब्ज़ा जमाया तो दूसरी ओर ग़ुस्सा भी था। मन से इतने शब्द निकले कि लगा बैठकर उसे ही लिख दूँ, लिखने बैठते ही मन की गलियाँ वीरान होकर डराने लगीं..आख़िर कुछ न हुआ सिर्फ़ मौन के सिवा...क्या कह दूँ जो बार-बार नहीं दोहराया...ऐसा कौन-सा दुःख बयान कर दूँ जो नया हो...ये डर...ये दहशत...ये ग़ुस्सा...ये दुःख...ये भाव, सालों से मन को सालते आ रहे हैं...क्या बदला है कुछ भी तो नहीं? स्थिति बद से बदतर हुई है और सुधरने के आसार नज़र ही नहीं आते।

आठ साल की बच्ची के साथ ये दरिंदगी...ये हैवानियत...तिल-तिल कर मारना किसे कहते हैं ये शब्द-दर शब्द उस चार्जशीट में पढ़ा मैंने। इन्हें सज़ा क्या दी जाए? ऐसी कौन-सी सज़ा होगी जो इनके गुनाहों के लिए काफ़ी हो? सात जन्म लेकर सिर्फ़ सज़ा भुगतते रहें तो भी कम ही होगी। किस मंदिर की बात की जाती है? कौन-से भगवान? सब ख़ामोश होकर गवाह बने उस दरिंदगी के..उस मासूम के शरीर में तो शायद इतनी जान भी बाक़ी नहीं होगी कि वो चीख़ भी पाए और जो चीख़ पाते हैं उनकी कौन-सी सुनी जा रही है?...कुछ महीनों की बच्चियों से लेकर अस्सी-नब्बे साल की बुज़ुर्ग महिलाओं तक कोई भी सुरक्षित है?

और उस पर इन बातों पर भी राजनीति...वाह, ख़ुद की शक्ल आइने में देख कैसे पाते हैं ये नेता?...शर्म किसे कहते हैं वो तो शायद अब किसी को पता ही नहीं। ऐसे में हम चीख़ें तो किसके लिए ये समाज बहरा हो चुका है, जिसे लड़कियों की चीख़ सुनाई देना बंद हो चुकी है। जिसकी आँखें हवस का शिकार होती लड़कियों की हालत पर भी भीगती नहीं है। जितनी निकृष्ट मानसिकता उन दरिंदों की है उससे ही होड़ लगाती मानसिकता समाज के ठेकेदारों की भी है।

हम ख़ुद भी इस विषय पर लिखकर, रोकर, चीख़-चिल्लाकर ख़ुद को बरी कैसे मान लें?...तीन महीने बाद तो हम ख़ुद जागे हैं, अब हमें पता चला है कि एक आठ साल की मासूम क्या भुगतकर यहाँ से गयी है और जाने कितनी ही ऐसी मासूम बच्चियाँ और हर उम्र की लड़कियाँ..ऐसी भयावह यातनाएँ झेलकर यहाँ से जाती हैं...एक हादसे में मरती लड़की अपने साथ छेड़छाड़ को महसूस करके अपनी आँखें बंद करती है...या शायद उस एक घिनौने स्पर्श से ही उसके जीने की आख़िरी कोशिश भी वो छोड़ती है। क्या इतना भावनाशून्य हो चुका है ये समाज कि अब उसे सिर्फ़ देह के सिवा स्त्री में कुछ नज़र नहीं आता? और भोग के सिवा वो किसी स्त्री के बारे में कोई और विचार अपने मन में लाने में असमर्थ है? क्या यही है समाज? क्या यही है नारी को पूजने वाला देश?

मैं व्यथित हूँ...हम व्यथित हैं...पर क्या होना है इस व्यथा से? क्या हुआ है अब तक इस व्यथा से? कितने मौक़े आ गए हैं हमारे सामने व्यथित होने के और जाने कितने आएँगे...कौन-सी ऐसी महिला बाक़ी रह गयी है जिसे कभी छेड़छाड़ या किसी घिनौने स्पर्श का सामना न करना पड़ा हो...अब तो शायद पैदा होते ही बच्चियाँ भी इस गिनती में शामिल होने लगें...बस उस दिन के आने का इंतज़ार करें अब?..हम सालों तक सब सहकर चुप रहे किसी से कुछ नहीं कहा...क्या बदल गया?कुछ भी तो नहीं, बल्कि ये सब बढ़ता ही जा रहा है...तो अब चुप रहकर भी क्या बदल जाना है? बोलने से शायद न भी बदले लेकिन चुप रहने से तो कुछ नहीं होगा ये पक्का है...तो अब चुप रहने का कोई अर्थ ही नहीं है क्यूँकि चुप रहने से कुछ नहीं बदलने वाला...आज तक नहीं बदला।

एक ऐसा समाज जहाँ माएँ अपनी बेटियों को चुप रहने की सलाह देती हैं और अपने साथ हुई ऐसी ही घटनाओं को बताकर सालों से कुछ न बदलने की कहानियाँ सुनातीं हैं और जहाँ पिता अपने बेटे को अपनी घिनौनी हरकत में शामिल होने के लिए बुलाता है...ऐसी सोच को झकझोरने का वक़्त आ गया है वरना ये गहरी नींद इंसानियत को डुबोकर भी ख़त्म नहीं होगी...हमारा चुप रहना इस समाज को किस गर्त में ले गया है..हम अब भी चुप रहे तो कब निकलेगी ये आवाज़...?

अब जितनी हिम्मत है...उतनी ही जुटाकर बोलना होगा...आवाज़ न निकले तो चीख़ना होगा, घुटी-घुटी ही सही कोई आवाज़ बाहर ज़रूर आएगी...मौन से कोई हल नहीं निकलेगा...आज तक नहीं निकला। अब और नहीं...जितने दिन हम हैं उतने दिन के लिए जो कर सकते हैं करना है...अब चुप रहने से काम नहीं चलेगा...इस हद तक समाज का पतन देखने मिलेगा ये हमने..सोचा ना था....