Wednesday, November 4, 2009

दुःख का अधिकार

आज एक पाठ पढ़ा रही थी......"दुःख का अधिकार"......इसमे लेखक यशपाल जी ने कितनी आसानी से समाज में होने वाले भेदभाव को दर्शाया है.......एक गरीब बूढी औरत को अपने बेटे की मृत्यु के अगले ही दिन अपने पोते और बीमार बहु का पेट पालने के लिए खरबूजे बेचने आना पड़ता है......उसका दुःख उसकी आखों से छलका जा रहा है...लेकिन वो मजबूर है.....उस पर से समाज के लोग उसके साथ सहानुभूति रखने की बजाय उसे कोसते हैं...उसे पत्थर दिल माँ,लालची,धर्म भ्रष्ट करने वाली और भी न जाने क्या-क्या कहते हैं...........उस वक्त लेखक को एक दूसरी सभ्रांत महिला की याद आती है...जिसने अपने बेटे की मृत्यु का ग़म एक महीने से भी ज्यादा मनाया था.....वो बार-बार बेहोश हो जातीं थीं....और महीनों दुख मानते हुए बिस्तर से भी नही उठीं थीं....बाजार की बात तो दूर ही है.........

इस कहानी को पढ़कर मुझे भी कहीं न कहीं ये बात चुभी कि क्या धनवान को हर हक़ नही मिल गया है..?...एक गरीब अपना त्यौहार-खुशी सब काम करते हुए ही मनाता है...लेकिन उसे तो दुःख तक मनाने के लिए समय नही मिलता......कोई भी त्यौहार हो शाम तक काम करता है,तो बच्चों को उस दिन कुछ ढंग का खाना नसीब होता है.....अगर त्यौहार के दिन रोटी के साथ दाल-सब्जीभी मिल जाए तो वो भी उन्हें किसी मिठाई से कम खुशी नही देती....हम-आप जैसे लोग महीनों पहले से त्योहारों की तैयारियों में जुटे रहते हैं....कैसे परदे....कैसी चादरें.....गुलदान कहाँ रखेंगे...कपड़े कैसे हों...वगेरह वगेरह.....लेकिन इन्हे परदे,कपड़े की तो बात ही छोडिये....उस दिन का खाना घर पर पूरा हो यही चिंता सताती है.....तभी तो ये दूसरो के घरों में साज-सज्जा को अपने घर की सोचकर करते हैं........सुख की बात तो फिर भी समझें लेकिन इन्हे तो दुःख मनाने की भी फुर्सत नही है....अगर एक दिन काम न करें तो खाना नसीब न हो...इस पर या तो दुःख मना लें या बच्चों के पेट की फिक्र करें.....और पेट की फिक्र तो हमेशा ऊपर होती है....ऐसे में ये अपना दुःख छुपाकर काम में लग जाते हैं और हम इन्हे इस पर भी बातें सुनाने से बाज़ नही आते...

कभी हममें से शायद ही किसी ने सच्चे दिल से इनके बारे में सोचा हो....आप में से तो शायद कई ऐसे होंगे भी जो इनके लिए कुछ कर पा रहे हों....लेकिन मैं अब तक ऐसा कुछ नही कर पाई हूँ............आशा है कभी तो कुछ करुँगी....

समाज की एक ऐसा वर्ग जो हमारी जरूरतों में अपनी जरूरतों को तलाशता है....हम ही उसकी जरूरतों को न समझेंगे.......सोचा ना था....