Saturday, April 25, 2015

रहस्यों की चाबी:कृष्णकुंजी




'कृष्णकुंजी' अश्विन सांघी की लिखी एक बेहतरीन किताब है.ये कहानी है एक ऐसे सीरियल कीलर की जो खुद को कलियुग का कल्कि अवतार मानता है और पाप को मिटाने की कोशिश में एक-एक करके वैज्ञानिकों की हत्या करता जा रहा है.इस पूरी गुत्थी को सुलझाने में ये कहानी एक ऐसा मोड़ लेती है जहाँ कृष्ण के जीवन से जुड़े कई पहलुओं पर खोज अनिवार्य हो जाती है.अश्विन सांघी आपको एक ऐसे सफ़र पर ले जाते हैं जहाँ आप कृष्ण के जीवन के साथ ही भारतीय इतिहास की तह तक पहुँचते हैं.ये किताब आपको एक साथ मर्डर मिस्ट्री,भारतीय इतिहास और कृष्ण के जीवन के कई अनसुने पहलु की ओर ले जाते हैं और ये सारी चीजें एक साथ होने के बाद भी आप कहीं बोझिल महसूस नहीं करते.रहस्य पूरी किताब में बना रहता है और रोचकता हर पन्ने के साथ बढती जाती है.

कृष्ण की अमूल्य धरोहर की तलाश में कृष्ण के जीवन और भारतीय इतिहास की तह तक जाती खोज और रहस्य से भरी कृष्णकुंजी एक ऐसी काल्पनिक कहानी है,जो लेखक अश्विन सांघी के रिसर्च और लेखन शैली की वजह से काल्पनिक कम वास्तविक ज्यादा लगती है.रहस्यों से भरी 'कृष्णकुंजी' कृष्ण के जीवन के कई रहस्य खोलती है.और हर तरह के पाठकों को लुभाने में कामयाब होने वाली किताब है.

कृष्ण के जीवन के बारे में कई बार पढ़ा है पर उनके जीवन को कोई इस तरह से भी पेश कर सकता है..सोचा न था....

Sunday, April 12, 2015

दशराजन



कुछ दिनों पहले पढ़ी अशोक के. बैंकर की लिखी किताब “दशराजन” ,इस किताब ने कई पहलुओं से प्रभावित किया,जिसमें सबसे पहला है रोचक लेखन,कहानी और पात्र.अशोक के. बैंकर ने बहुत ही ख़ूबसूरती से इस पूरी कहानी को पेश किया है. इस कहानी की सबसे बड़ी खासियत है कि ये हमारे प्राचीन इतिहास का अंश है,ये कहानी ऋगवेद से ली गयी है.

ये कहानी है ३४०० ई. पू. की,जहां एक कबीले के राजा ने अपनी प्रजा और कबीले की रक्षा के लिए अपनी छोटी सी सेना के साथ दस राजाओं और उनकी विशाल सेना का सामना किया था. उस वक़्त कबीले के मुखिया सुदास के पास कोई बाहरी मदद नहीं थी बल्कि उसे एक योजनाबद्ध तरीके से घेरा गया था.अपने पांच नदियों वाले कबीले की रक्षा के लिए सुदास ने हर संभव रणनीति का प्रयोग किया और अपने कबीले की रक्षा की. ये पांच नदियों वाला कबीला आज पंजाब के नाम से जाना जाता है.

केवल एक दिन में सभी आक्रमणकारियों के अंत के साथ ख़त्म हुए इस युद्ध को अशोक के. बैंकर ने बखूबी उतारा है.अघोषित युद्ध,एक साथ आक्रमण और सुदास की रणनीति,उसके सहायकों का साथ,गुरु का साथ से लेकर युद्ध की एक-एक घटना का इतना अच्छा वर्णन है कि आपके सामने पूरा चित्र उतर आता है.नायक सुदास अपने कबीले के हर इंसान यहाँ तक की पशु से भी प्रेम करता है,अपमान की स्थिति में भी संयम बनाये रखता है..शायद यही कारण हो सकता है कि खुद को विशाल शत्रु सेना से घिरा हुआ पाने के बाद भी वो समर्पण की बजाय सामना करने का निर्णय लेता है.

बहुत ही बेहतरीन तरीके से लिखा गया ये उपन्यास आपको बाँधने में सक्षम है और इसे एक बार उठाने के बाद आप पढ़कर ही छोड़ना चाहेंगे.हमारा भारतीय इतिहास ऐसे कई साहसी योद्धाओं और उनकी गाथाओं से भरा पड़ा है,जरुरत है तो बस उन्हें सामने लाने की.इस किताब को एक बार ज़रूर पढना चाहिए.इतिहास होने के बाद भी ये काफी रोचक ढंग से लिखा गया है,शायद कहीं कहीं लेखन ने घटनाओं को पेश करने के लिए कल्पना का भी सहारा लिया हो लेकिन फिर भी ये कहानी वेद में वर्णित है और इस कहानी को पढ़ते हुए आप सुदास जैसे पात्र के लिए मन में गर्व का अनुभव करते हैं.

भारत का इतिहास न जाने ऐसी कितनी कही और कितनी अनकही कहानियों को समेटे खड़ा है...कभी इतिहास के पन्ने से एक ऐसी सच्ची कहानी पढने मिलेगी,जो कल्पना से भी परे होगी...सोचा न था....


Saturday, April 11, 2015

"विश्व युवा लेखक प्रोत्साहन दिवस"


कल 'विश्व युवा लेखक प्रोत्साहन दिवस’ था.इस दिन अपने आसपास के युवाओं को जो पढने-लिखने  में रूचि रखते हैं उन्हें पढाई के अतिरिक्त लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.इस बात से मुझे याद आया किस तरह बचपन में मुझे लेखन के लिए प्रोत्साहित किया गया था,तब मैंने इस बारे में सोचा भी नहीं था..मुझे पता भी नहीं था कि मैं लिख सकती हूँ..या मैं कभी इस तरह लेखन में करियर बना सकती हूँ..पर उस वक़्त अगर मुझे प्रोत्साहन नहीं मिला होता तो शायद मैं कभी जान ही नहीं पाती कि लेखन मेरे जीवन का अंग है,और मैं शायद कुछ न कुछ लिखती तो रहती पर लेखन से वो रिश्ता नहीं बन पता जैसा आज है.
 

वैसे अगर बात करें ‘विश्व युवा लेखक प्रोत्साहन दिवस’  की तो सच बताऊँ तो ऐसा कोई दिवस है इसके बारे में कल ही मुझे पता चला;पर ये एक अच्छी शुरुवात है,मुझे तो लगता है बचपन से ही लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.स्कूल में निबंध लेखन ,कहानी लेखन जैसी प्रतियोगिताएं तो होती हैं पर उनमें सबको भाग लेने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता. जो रूचि रखता है वही आगे आता है और फिर बाद में अक्सर अध्यापकों द्वारा ऐसे ही बच्चों को अगली बार खुद चुन लिया जाता है,बाकियों से पूछा भी नहीं जाता.खैर स्कूल में न सही पर घर में तो लेखन की आदत को प्रोत्साहित किया जा सकता है.प्रोत्साहन से मतलब ये नहीं है कि उन पर रोज़ लिखने का दवाब हो या उन्हें कुछ साहित्यिक लिखने के लिए कहा जाए.



वैसे भी आजकल की पढाई को देखा जाए तो बच्चों और युवाओं के पास समय कम ही बचता है लेकिन अगर उन्हें लेखन के लिए प्रोत्साहित करना हो तो आप उन्हें एक डायरी लाकर दे सकते हैं जिसमें चाहे वो रोज़ न लिखें पर अपने किसी अच्छे दिन को लिख सकते हैं कि उस दिन में उन्हें क्या अच्छा लगा?किस बात से उन्हें ख़ुशी मिली? उन्हें बताएं कि वो जो भी लिखना चाहे उसके लिए बड़े-बड़े शब्दों का चुनाव करने की ज़रूरत नहीं है,वो बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल कर सकते हैं.शुरुवात में शायद महीने में एक आध दिन ही वो लिखें लेकिन बाद में वो खुद भी लेखन से जुड़ने लगेंगे और रोज़ डायरी लिखना उनकी आदत बन सकती है. इन दिनों जहाँ आये दिन कम उम्र बच्चों में तनाव और डिप्रेशन के मामले बढ़ते जा रहे हैं वहां डायरी लेखन कारगर इलाज हो सकता है क्यूंकि वो अपनी परेशानियों को भी अपनी डायरी में लिख सकते हैं और ये एक तरीके से किसी को अपनी बात बताने जैसे होता है,जिससे मन हल्का होता है. 


ये तो हो गयी लेखन की ओर भेजने की बात,वहीँ अगर किसी को पहले से ही लेखन में रूचि हो तो आप उन्हें आसपास के लोगों,घटनाओं या स्कूल घर से सम्बंधित कुछ लिखने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं.उनका एक ब्लॉग बना सकते हैं,जहाँ वो अपने मन चाही बाते लिखें,आप चाहें तो उनके लेखन को एक नयी दिशा देने के लिए इन गर्मियों में लेखन से सम्बंधित कुछ कोर्स भी करवा सकते हैं जैसे कहानी लेखन,स्क्रीनप्ले राइटिंग या उन्हें आप खुद ही अपने किसी दिन को एक कहानी के रूप में लिखने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं,जिसमें वो अपने दोस्तों के नाम भी शामिल कर सकते हैं,जिससे कहानी रोचक हो जाएगी और दोस्तों के बीच सुनाई जा सकती है या फिर वो अपने किसी पसंदीदा शिक्षक/शिक्षिका के लिए कहानी लिख सकते हैं,जिसमें वो उनके पढ़ाने,या बच्चों से व्यवहार के तरीके को एक कहानी के रूप में ढाल सकते हैं जिसमें वो पहले दिन अपने शिक्षक/शिक्षिका से मिलने से लेकर,उनके अपने फेवरेट बनने के सफ़र को लिख सकते हैं,ये शिक्षक दिवस पर उनके लिए अच्छा गिफ्ट भी हो सकता है. 


लेखन का महत्व हम सभी जानते हैं,और अगर हम अपने प्रयासों से किसी को भी लेखन की ओर ला सकें खासकर जिन्हें इसमें रूचि तो हो पर वो लेखन की ओर कदम बढ़ने में हिचकिचा रहे हों,यकीन मानिये ऐसे बहुत से लोग हैं,क्यूंकि लेखन का नाम आते ही लगता है कुछ बड़ा और अच्छा लिखना है पर ज़रूरी ये है कि दिल से लिखा जाए. और ये बात उनके आसपास रहने वाले ही उन्हें समझा सकते हैं और एक बार कलम हाथ में आ जाए तो लेखन की सीमा तय करना मुश्किल होता है. क्या पता आज आपके द्वारा किया ये छोटा प्रयास कल किसी को सफलता की ऊँचाइयों तक ले जाए.और आप उनकी कहानी के हीरो बन जाएँ.
लेखन की ओर प्रोत्साहित करते समय इस बता का ज़रूर ध्यान रखें कि आप लिखने के लिए दबाव न डालें.क्यूंकि ये बाल मन पर बुरा प्रभाव डाल सकता है,अगर प्रोत्साहन और कोर्स के बाद भी कोई लिखने में उतनी रूचि नहीं दिखाता या बात डायरी लेखन से आगे न पहुंचे तो निराश न हों. ये जानने की कोशिश करें की उनकी रूचि किसमें है..क्यूंकि हर व्यक्ति की विशेषताएं अलग होती हैं,तो वो विशेषता पता करके उस ओर प्रोत्साहित कीजिये.


कुछ सालों पहले तक जहाँ मैं लेखन से अपने रिश्ते को समझने की कोशिश में लगी थी वहीँ आज लेखन की ओर प्रोत्साहित करने की ऐसी बात लिखूंगी...सोचा ना था....



    

Thursday, April 9, 2015

ड्योढ़ी



किताबों से कभी गुज़रो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गए वक़्त की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं!
बस कुछ इसी तरह कई किरदारों से मुलाक़ात हुई गुलज़ार की लिखी “ड्योढ़ी” को पढ़ते हुए. यूँ तो गुलज़ार के शब्दों को कई बार सुना है पर उन्हें पहली बार पढ़ा. ड्योढ़ी कई कहानियों का संग्रह है और हर पहली कहानी दुसरी से बिलकुल अलग,इस एक संग्रह में वो आपको कभी सीमा पार ले जाते हैं तो कभी आसमान की सैर करवाते हैं,कभी बचपन की मासूमियत से रुबरु करवाते हैं तो कभी फुटपाथ पर पलती ज़िन्दगी की मुश्किलों का अहसास करवाते हैं,कभी पहाड़ों की सैर करवाते हैं तो कभी आसमान में पतंग के साथ गोते लगवाते हैं. ज़िन्दगी में जिस तरह कई रंगों का समावेश है उसी तरह ये संग्रह भी आपको कभी खुश,कभी भावुक तो कभी ठहाके मारने पर मजबूर करता है.
इतनी कहानियों में से सबकी बातें तो नहीं की जा सकतीं लेकिन एक-दो कहानियां इतनी अच्छी हैं कि उनका ज़िक्र होना ज़रूरी है. जैसे “कुलदीप नैयर और पीर साहब” इस कहानी में कुलदीप नैयर एल ओ सी के बारे में बात करते हुए अपनी माँ के बारे में बताते हैं जिसे गुलज़ार साहब ने बहुत अच्छी तरह पिरोया है:

‘हमारे घर के सामने एक बहुत बड़ा अहाता था.जिसके एक तरफ पीपल का पेड़ था और उसके नीचे एक क़ब्र थी,पता नहीं किसकी थी पर माँ ने कह-कहकर उसे पीर साहब की क़ब्र बना दिया.माँ पीपल पर पूजा का सिन्दूर लगतीं और साथ ही उस क़ब्र पर एक दीया रख देतीं थीं.सिन्दूर पीपल के पेड़ पर लगा के,ऊँगली क़ब्र की ईंट से पोंछ लेतीं.आरती करतीं,चिराग़ की आंच पीपल को देकर,दीया क़ब्र के टूटे हुए आले पर रख देतीं.भोग पीपल को लगता तो पीर साहब को भी लगता.घर पे किसी बात से रंजिश हो जाए तो माँ पीपल से पीठ लगाके बैठ जातीं और पीरजी से बातें करतीं.कभी रो भी लेतीं,फिर जी हल्का हो जाता और वो उठकर घर आ जातीं.पीर साहब को साथ ले आतीं.पीर साहब की मुक्ति न होने दी उन्होंने.”

इस तरह एक और कहानी है “द स्टोन एज” इस पूरी कहानी में युद्ध के माहौल को एक दो साल के  बच्चे की नज़र से बताया गया है,जो अब उस माहौल का आदि हो चुका है:

“मस्जिद खून की बू से भरी हुई थी.ज़ख़्मी हाथ,कुहनियाँ,कंधे,गर्दन!पूरे सालिम आदमी बहुत कम थे.नसीर के लिए दुनिया की नॉर्मल सूरत यही थी.उसी में आँख खोली थी.उसी में बड़ा हो रहा था. ज़मीन पर खून देखकर उस में पैर मारना.उसके लिए ऐसा ही था- जैसे बारिश के पानी में पैर पटकना.”  

इसी तरह एक और कहानी है “घगू और जामनी”,जिसमें एक पिंजरे के पंछी को आसमान में उड़ाती पतंग से प्यार हो जाता है और बस वो उससे पिंजरे में बैठा-बैठा बातें करता है..बहुत ख़ूबसूरती से लिखी गयी कहानी है ये. गुलज़ार को पढना एक अलग अनुभव रहा,शायरों की बातें अक्सर पहाड़ी रास्तों की तरह होतीं हैं,घुमावदार,दिमागी कसरत करवातीं,पर खूबसूरत..

“एक ख्याल न दिखता है,न चुप होता है
ज़हन के सन्नाटे में एक झींगर है,बोलता रहता है!”
किसी लेखक की लेखनी में ज़िन्दगी के इतने रंग मिलेंगे...सोचा न था....

Wednesday, April 8, 2015

असुर:पराजितों की गाथा


साल की शुरुवात हुई आनंद नीलकंठन की लिखी किताब “असुर:पराजितों की गाथा” से. जैसा की नाम से ही जाहिर है ये किताब बयां करती है,असुरों की गाथा,यानि रावण की कहानी. रामायण की कहानी तो हम सभी जानते हैं,पर रावण के विषय में कितना पता है हमें,कई बार ये प्रयास हुआ भी कि रावण की कहानी कही जाए,जिससे हमें ये पता चला कि रावण वेदों का ज्ञाता और शिवभक्त था;सीता हरण की बात भी सामने आती है,लेकिन रावण का बचपन कैसा था..कैसे जंगल में अभावों में पला बालक सोने की लंका तक पहुंचा..ये सारी बातें विस्तार से जानने की उत्सुकता मुझे इस क़िताब की ओर ले गयी. 

आनंद नीलकंठन ने रावण की इस गाथा या कहें रावणायन में रावण के जीवन के हर पहलु को सामने लाने का प्रयास किया है;इस क़िताब के लिए उन्होंने क्या शोध किये इस बात का उल्लेख नहीं मिलता इसलिए मेरा मानना है कि उन्होंने एक पात्र तथा अविस्तृत रूप से ज्ञात घटनाओं को सामने लाने के लिए कहीं-कहीं अपनी कल्पना का सहारा भी लिया होगा.

रावण को जानना हमेशा मेरे लिए एक उत्सुकता का विषय रहा है इसलिए ये पुस्तक मेरे लिए मुख्य आकर्षण थी,शुरुवात बेहद अच्छी होती है जहाँ युद्ध समाप्त हो चुका है और रावण अर्धमृत-सा पड़ा हुआ अपनी तबाह हो चुकी लंका की ओर देख रहा है और वो अपने जीवन की शुरुवात के बारे में सोचता है. यहाँ से रावण सूत्रधार बनकर कहानी को अपने बचपन,अभाव और मृत्यु के मुंह से भी आगे बढ़ने की चाहत की ओर ले जाता है. और फिर शुरू होता है आगे बढ़ने का सफ़र,यहाँ लेखक एक किरदार “भद्र” को लाते हैं.जो अंत तक साथ रहता है और हर प्रमुख घटना का जाना-अनजाना हिस्सा भी बन जाता है. रावण और भद्र के बीच अविश्वास और संदेह का रिश्ता ही दर्शाया गया है.कुछ घटनाओं,जिसके बारे में किसी राजा को ज्ञात नहीं हो सकता,बताने के लिए भद्र को सूत्रधार बनाया जाता है. 

एक अच्छी बात ये भी है कि रावण को सिर्फ नायक दर्शाने की कोशिश नहीं की गयी है,उसकी कमज़ोरियों,कुंठाओं और भय को भी लेखक ने आगे लाने का प्रयास किया है.लंका दहन,विभीषण का लंका त्याग और राम-रावण युद्ध जैसी प्रचलित घटनाओं को हमेशा हमने रामायण में ही पढ़ा है,इन सब घटनायों को लंका की ओर से देखने का मौका इस क़िताब के जरिये मिलता है और एक अलग दृष्टिकोण सामने आता है. एक वक़्त जब रावण अपने मंत्रियों की सलाह पर युद्ध से भागना तो चाहता है,लेकिन फिर आत्म ग्लानी उसे रोक लेती है,वहां रावण के विचार बेहद अच्छी तरह आते हैं.कई जगह रावण के विचार पढ़कर आपको अच्छा लग सकता है और आप सहमत हो सकते हैं लेकिन फिर भी रामायण का असर कहें या रावण के प्रति हमारा पूर्वाग्रह कि सहानुभूति का अहसास नहीं जग पाता.. 

“यदि मैंने अपने दिमाग की सुनी होती तो शायद परिणाम कुछ और होते परन्तु जो भी हो,मैं भी मोहमाया में बंधा जीव ही तो था.मैं भी आवेगों के पाश से मुक्त नहीं था.मैं एक रावण की भांति जीया था और रावण की भांति ही मरूँगा.मैं राम बनाने की इच्छा नहीं रखता और न ही मुझे कोई सम्पूर्ण पुरुष अथवा कोई ईश्वर बनना था;मेरे देश में पहले से ही देवताओं और ईश्वरों का कोई अभाव नहीं था.इसमें अभाव था तो केवल मनुष्यों का- ऐसे लोगों का,जो सही मायनों में केवल मनुष्य ही हों.”

इस किताब में सीता हरण की कहानी और कारण बिलकुल अलग बताया गया है,जो मैंने पहली बार ही जाना है,और शायद इस एक कहानी के लिए ही सही इस किताब को पढ़ा जा सकता है.शुरुवात में दो-तीन अध्याय के बाद कुछ दो अध्याय के लिए कहानी बोझिल हो जाती है जहाँ रावण विश्व-विजय अभियान की ओर निकलता है जहाँ लेखक ने शायद असुरों पर किये रिसर्च को पाठकों के सामने लाने का मौका समझकर उनका सारा इतिहास बताया है,रावण अपने सैनिकों को ये इतिहास बताते हैं और यहाँ सूत्रधार रावण खुद ये सोचता है कि सनिकों को इस बातों से कुछ लेना-देना नहीं है और वो सिर्फ यूँ ही उसकी बातें सुन रहे हैं जबकि वास्तव में वो बोरियत महसूस कर रहे हैं,तो मुझे लगता है शायद लेखक को इस बात का पता था कि ये अध्याय रावण के सैनिकों की तरह पाठकों के लिए भी बोझिल होने वाला है,पर आप एक बार वो अध्याय पार कर लेंगे तो आगे कुछ भी बोझिल नहीं है.कई जगह रावण जीवन मूल्य समझाते हुए भी मिलते हैं..

“पहले मुझे उस बात पर ग्लानी होती थी,परन्तु धीरे-धीरे मैं इस शर्मिंदगी का अभ्यस्त होता चला गया. व्यक्ति चाहे तो किसी भी चीज़ का अभ्यस्त हो सकता है,भले ही वह शर्मिंदगी ही क्यूँ न हो..”

आनंद नीलकंठन का लिखा ये उपन्यास आपको रामायण के दुसरे पहलु से अवगत करता है,जो रामायण की तरह प्रचलित नहीं है और आपको असुरों की कहानी बताता है.इस पुस्तक में जो स्वतंत्रता असुर कन्याओं के लिए बताई गयी है वो शायद आज की महिलाओं द्वारा मांगी जाती हैं. “असुर:पराजितों की गाथा” एक बार अवश्य पढना चाहिए..अगर आप रामायण और राम के कट्टर पक्षधर हैं तो भी.‘रावणायन’ भी रामायण से किसी मायने में कम नहीं है.

रावण को जानने के लिए पढ़ी गयी ये क़िताब मेरी उत्सुकता और सवालों को और बढ़ा देगी...सोचा न था....