
अपनी ट्रेनिंग के सिलसिले में हिंदी में आने वाले उर्दु लफ़्जों के सही उच्चारण के लिए मैंने कुछ ऎसी पुस्तकों को पढ़ने का सोचा..जिसमे हिंदी के साथ उर्दु लफ्ज़ शामिल हों और वो बहुत ज्यादा कठिन भी न हों...मेरे भाई ने मुझे जावेद अख्तर की तरकश पढ़ने की सलाह दी...
तरकश....जावेद साहब की बेहतरीन रचनाओं का संग्रह है..उनकी कई गजलों के साथ- साथ बेहतरीन शेर और कई रचनाएँ भी हैं...कुछ जो उनके जीवन को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करती हैं...वैसे तो अगर उस किताब के बारे में या उन रचनाओं के बारे में कुछ लिखना चाहूँ तो शायद किसी एक पंक्ति को चुनना मुश्किल होगा फिर भी अपने मन को समझा कर मैं कुछ यहाँ शामिल कर रही हूँ...
उनके कुछ शेर जो मुझ जैसी शेरों-शायरी पसंद न करने वाली को भी पसंद आ गए :
ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए....
सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है
हर घर में बस एक ही कमरा कम है...
अपनी वजहे-बरबादी सुनिये तो मज़े की है
ज़िंदगी से यूँ खेले जैसे दूसरे की है...
रात सर पर है और सफ़र बाकी
हमको चलना ज़रा सवेरे था....
उनकी कुछ रचनाएँ तो बहुत ही उम्दा है...जैसे बीमार की एक रात
दर्द बेरहम है जल्लाद है दर्द
दर्द कुछ कहता नहीं सुनता नहीं
दर्द बस होता है...
उसी तरह
ग़म बिकते हैं की ये पंक्तियाँ कितनी सच्ची मालूम होती हैं,
अपनी महबूबा में अपनी माँ देखे
बिन माँ के लड़कों की फितरत होती है
ये पंक्तियाँ भी कम खूबसूरत नहीं
तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते थे
अब मिलते है जब भी फुर्सत होती है....
फीका चाँद की ये पंक्तियाँ
उस माथे को चूमे कितने दिन बीते
जिस माथे की खातिर था एक टीका चाँद
अब हम इसके भी टुकड़े कर ले
ढाका रावलपिंडी और दिल्ली का चाँद
वैसे तो मेरा मन कर रहा है कि मैं सारी रचनाओं, गजलों और शेरों को यहाँ शामिल कर दूँ लेकिन मुझे लगता है कि आप लोग जब उस पुस्तक को लें तो कुछ ज्यादा आप लोगों के लिए वहाँ रहे...कोई इतने बेहतर ढंग से अपने भावों को व्यक्त कर सकता है कि उसकी भावनाएं सीधे पाठकों के दिल तक पहुंचे....सोचा ना था....