Thursday, December 1, 2016

आपका बंटी और मन्नू भंडारी का लेखन

"बस चली तो सबके बीच हँसते-बतियाते उसे ऐसा लगा जैसे सारे दिन ख़ूब सारी पढ़ाई करके घर की ओर लौट रहा हैतभी ख़याल आया-धत् वो तो स्कूल जा रहा है"

इस एक वाक्य में बंटी के मन की मनस्थिति ज़ाहिर हो जाती है,जब आपको घर से ज़्यादा बाहर आनंद आने लगे तो समझिए कुछ ठीक नहीं है,कुछ भावनाएँ ऐसी होतीं हैं जो आप अंदर तक महसूस तो करते हैं,लेकिन उन्हें कह पाना मुश्किल होता है..बस कुछ इसी तरह का अनुभव रहा "आपका बंटी" पढ़ने कापहली रात से शुरू करके अगली दोपहर तक पढ़कर ख़त्म कर ली थी लेकिन पिछले तीन दिन लाख सोचने के बाद भी समझ नहीं आया कि इसके बारे में क्या लिखा जा सकता है?..यही नहीं इससे भी कहीं ज़्यादा उलझाने वाले सवाल सामने खड़े हुए हैं..इसे पढ़ने के बाद अपने आसपास ना जाने कितने ऐसे बच्चे..ऐसे लोग नज़र आने लगे हैं,जो कहीं ना कहीं इस तरह की ही स्थिति से जूझ रहे हैं और शायद जूझते रहेंगे,क्यूँकि समाज,परिवार और आसपास के लोग उन्हें कभी समझ ही नहीं पाएँगे


मन्नू भंडारी ने शुरुवात में ही लिख छोड़ा है कि अगर बंटी के हालात पर पाठकों की आँखें नम हों,तो वो ये समझेंगीं कि ये ख़त ग़लत पते पर पहुँचा है..आँखें नम तो हुईं लेकिन साथ ही एक गहरी टीस भी उठी..परिस्थितियाँ चाहें अलग-अलग हों पर बीत तो वही रही है कईयों के साथमन्नू जी ने भले ही इस उपन्यास को बंटी के नज़रिए से पेश करते हुए लिखा है और साथ ही उसकी माँ शकुन का पक्ष भी रखा है..लेकिन फिर भी पढ़ते हुए शकुन का पक्ष मुझे बंटी के सामने कम ही लगा..जिस पल से बंटी माँ की ख़ुशी के लिए सवालों की जगह ख़ामोशी अपनाता है..वहाँ से ही वो साथ जुड़ जाता है..बीच की कई घटनाएँ जहाँ बंटी को चोट पहुँचातीं हैं तो उसकी मौन संवेदना सीधे वार करती है..आख़िर में आकर जहाँ और जानने की इच्छा बाक़ी रह जाती है वहीं एक कसक ये भी रह जाती है कि काश बंटी को एक साथ मिल जाए

मन्नू भंडारी बहुत अच्छा लिखती हैं और जितना भी थोड़ा-बहुत मैंने पढ़ा है...उसके अनुभव के हिसाब से मेरा मानना है कि हर लेखक/लेखिका के लेखन का..मन के एक ख़ास भाव पर प्रभाव होता है,तभी किसी की सस्पेन्स पर लिखी चीज़ें अच्छी होती हैं,तो किसी की प्रेम कहानियाँ...उसी तरह मन्नू भंडारी मन के अकेलेपन,तन्हाई,अकेलेपन की बेचैनी जैसे भाव पर अधिकार रखती हैं और ये बात उनके लेखन में झलकती है और लेखन इतना अच्छा है कि पढ़ने वाला अपने आप उस भाव को ज़्यादा महसूस करने लगता है और उनकी कहानियों के किरदारों से जुड़ने लगता है...किरदार भी इतने आम से लगते हैं कि शायद कभी राह चलते मिल जाएँ

मेरे मामले में मन्नू भंडारी का लिखा हमेशा मन के उस अंधेरे कोने तक पहुँच जाता है,जहाँ कई अव्यवस्थित से ख़याल बसते हैंमन का वो कोना,जहाँ मन के भ्रम, भटकाव, अकेलापन,तनाव,चिंता और परेशानियाँ,कई अनकही बातें,विरक्त से भाव..सब यूँ ही छोड़कर हम उनसे दूर ख़ुश रहते हैं या ख़ुश रहने की कोशिश के साथ जी रहे होते हैं

ऐसे में बस उनका लिखा पढ़ते जाओ और वो कोना और उसके भाव बाहर आने की कोशिश में लग जाते हैं...आप लाख चाहो कि उन सारे भावों को बटोरकर या धकेलकर उस कोने में वापस पहुँचा दिया जाए और किसी तरह उनसे वापस दूरी बना ली जाए...पर इतना आसान नहीं होता...बहुत मेहनत करनी पड़ती है तब कहीं आप फिर से ख़ुश हो पाते हैं या ख़ुश होने की कोशिशों में लग जाते हैं,और जब तक थोड़ा संम्भल पाते हैं..आपके सामने एक नयी किताब आती है...उसके ऊपर मन्नू भंडारी का नाम होता है और आप कुछ दिन कन्नी काटकर फिर उसे पढ़ लेते हैं और...

ये सब लिखते हुए अभी एक बात मन में आयी जब तक किसी लेखक/लेखिका का लेखन..मन के किसी भी एक भाव को नहीं छू पाता या जगा पाता,तब तक शायद उसका लेखन अधूरा ही हैआपका लिखा अपने लिए हो सकता है लेकिन जब-जब आपके मन में ये इच्छा जागे कि आपको अपना लिखा किसी और को पढ़ाना है,तब ये ज़रूर सोचें कि कम से कम अपने मन के एक भाव पर विजय पाना ज़रूरी है और तभी वो बात लेखन में अपने आप पाएगी...जिस भाव से लिखेंगे वही भाव पढ़ने वाले तक पहुँचेगा...तभी तो आजकल बहुत सारी चीज़ें पढ़कर ज़बरदस्ती का ज्ञान दिया जा रहा है टाइप का भाव ही आता है

मन्नू भंडारी का लेखन स्तब्ध कर देता है,इस तरह अपने शब्दों से कोई यूँ प्रभावित कर सकता है…सोचा ना था