Thursday, July 26, 2018

प्रेम का विलोप-काल

कल बातों-बातों में देश और प्रेम की बातें हुईं...मेरा मानना है कि देश की स्थिति पर चर्चा या तो बहुत गहन तरीक़े से हो सकती है या नहीं हो सकती, ऊपरी तौर पर छूकर निकल जाएँ ऐसा हो ही नहीं सकता। मुझे इस विषय पर कुछ भी लिखने से पहले ख़ुद भी कई बातों और अपने विचारों में सामंजस्य बिठाने और ख़ुद को टटोलने की ज़रूरत है, जहाँ कार्य प्रगति पर है।

रही प्रेम की बात..तो अभी लगता है कि देश में "प्रेम का विलोप-काल" चल रहा है। प्रेम अब अपनी सहजता और वो अपनापन खोता हुआ नज़र आ रहा है, जिसके बल पर उसका वजूद है। लोगों में इस क़दर ईर्ष्या, द्वेष और घृणा का भाव है कि प्रेम के बारे में सोचना-समझना तो दूर..उसे बर्दाश्त करना तक दूभर होने लगा है। अब हम किसी की ख़ुशी..होंठों की मुस्कुराहट छीनने में आनंद की अनुभूति करने लगे हैं, लेकिन ये भी क्षणभर की होती है।

किसी की बोलती बंद कर दी, ख़ून बढ़ गया, कोई अपनी बात पर अड़ा हुआ है तो उस पर निजी प्रहार करके धराशायी कर दिया। यही अगले दिन हमारे साथ हो गया और हम अपनी ख़ुशी वापस पाने के लिए फिर किसी नए शिकार की तलाश में चल पड़े। हाँ...अब हम इंसान कम शिकारी ज़्यादा रह गए हैं, जिसे किसी का शिकार करके, जान लेकर, ख़ून निकालकर, खाल और खोपड़ी दीवार में सजाकर गर्व होता है। हम प्रेम नहीं कर सकते ये तो रही एक बात..पर अब हम किसी को प्रेम करते देख भी नहीं सकते, ये चिंताजनक बात है..

प्रेम शब्द में वैसे तो काफ़ी विस्तृत भाव होते हैं और पहले कई लेखकों-कवियों ने कहा भी है कि प्रेम को शब्दों में बयान करना या किसी तरह ज़ाहिर कर पाना मुश्किल काम है। लेकिन अभी वाले माहौल को देखा जाए तो प्रेम का अर्थ केवल स्त्री और पुरुष के सम्बंध तक सीमित कर दिया गया है। इस सीमित नज़रिए में और संकुचन ये आ गया है कि अब तो एक स्त्री और पुरुष को साथ देखकर किसी और रिश्ते की कल्पना ही नहीं हो पा रही है..और यही हर स्त्री को देखने का नज़रिया भी बन गया है। 

एक पुरुष और स्त्री को आपसी सहमति से प्रेम का अधिकार है, ये तो ठीक है..संविधान ने भी ये अधिकार दिया है, पर इस पर भी अड़चनें हमेशा बनी रही हैं। लेकिन अब तो स्त्री-पुरुष का साधारण मिलकर बैठना, बात करना, गले लगना, हँस लेना, जैसी चीज़ें भी लोगों की नज़रों में खटकने लगी हैं। अपनी नज़रों से जितना कर सकते हैं उतनी इज़्ज़त तो हर एक इंसान दूसरे की उतार ही लेता है...सोचिए कि किसी लड़की को किसी लड़के के साथ कॉफ़ी पीते देख कितनों के मन में गूँजता है कि "फँसा रखा है...लड़के को" या यही लड़के के लिए भी सोच लेते हैं "लड़की फँसा रखा है..".. इसी तरह हर लड़की की तरक़्क़ी में उसके "चालू होने और उसके शरीर की भूमिका आँकने" में भी हम पीछे नहीं रहते...इसी तरह की और भी न जाने कितनी बातें गूँजती रहती है। फिर कोई भी छोटे से छोटा मौक़ा मिलता है..किसी को गले लगते देख लिए, लड़की और लड़का साथ जा रहे हैं वग़ैरह-वग़ैरह...बस दो हाथ, दो पैर अधिकांश के पास तो हैं ही और किसी को भी, बेवजह ही सही, मारने की इच्छा और ग़ुस्सा भी भरपूर है।

आए दिन दिख रही घटनाओं से ये बात तो तय है कि बहुत जल्द प्रेम का पूरी तरह लोप हो जाना निश्चित है...कुछ दिन लोग उसका ढोंग ज़रूर करेंगे पर वो भी जल्द ही ख़त्म हो जाएगा। सोने-चाँदी, गहने-कपड़े, घर-कारोबार जैसी चीज़ें तो सब संभाल रहे हैं जोड़ रहे हैं..किसी तरह प्रेम को भी थोड़ा-सा ही सही संरक्षित करने की कोई योजना बना लो..आगे दिखने भी नहीं वाला ये..और हम इसके बारे में कल को किसी को बताएँगें कि "मनुष्य हृदय में प्रेम जैसा भी एक भाव हुआ करता था, तो नयी पीढ़ी हमें पागलख़ाने में डाल देगी। 

प्रेम की विलुप्ती का ये काल भी देखने मिलेगा..सोचा ना था....

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-07-2018) को "ग़ैर की किस्मत अच्छी लगती है" (चर्चा अंक-3046) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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