आज एक पाठ पढ़ा रही थी......"दुःख का अधिकार"......इसमे लेखक यशपाल जी ने कितनी आसानी से समाज में होने वाले भेदभाव को दर्शाया है.......एक गरीब बूढी औरत को अपने बेटे की मृत्यु के अगले ही दिन अपने पोते और बीमार बहु का पेट पालने के लिए खरबूजे बेचने आना पड़ता है......उसका दुःख उसकी आखों से छलका जा रहा है...लेकिन वो मजबूर है.....उस पर से समाज के लोग उसके साथ सहानुभूति रखने की बजाय उसे कोसते हैं...उसे पत्थर दिल माँ,लालची,धर्म भ्रष्ट करने वाली और भी न जाने क्या-क्या कहते हैं...........उस वक्त लेखक को एक दूसरी सभ्रांत महिला की याद आती है...जिसने अपने बेटे की मृत्यु का ग़म एक महीने से भी ज्यादा मनाया था.....वो बार-बार बेहोश हो जातीं थीं....और महीनों दुख मानते हुए बिस्तर से भी नही उठीं थीं....बाजार की बात तो दूर ही है.........
इस कहानी को पढ़कर मुझे भी कहीं न कहीं ये बात चुभी कि क्या धनवान को हर हक़ नही मिल गया है..?...एक गरीब अपना त्यौहार-खुशी सब काम करते हुए ही मनाता है...लेकिन उसे तो दुःख तक मनाने के लिए समय नही मिलता......कोई भी त्यौहार हो शाम तक काम करता है,तो बच्चों को उस दिन कुछ ढंग का खाना नसीब होता है.....अगर त्यौहार के दिन रोटी के साथ दाल-सब्जीभी मिल जाए तो वो भी उन्हें किसी मिठाई से कम खुशी नही देती....हम-आप जैसे लोग महीनों पहले से त्योहारों की तैयारियों में जुटे रहते हैं....कैसे परदे....कैसी चादरें.....गुलदान कहाँ रखेंगे...कपड़े कैसे हों...वगेरह वगेरह.....लेकिन इन्हे परदे,कपड़े की तो बात ही छोडिये....उस दिन का खाना घर पर पूरा हो यही चिंता सताती है.....तभी तो ये दूसरो के घरों में साज-सज्जा को अपने घर की सोचकर करते हैं........सुख की बात तो फिर भी समझें लेकिन इन्हे तो दुःख मनाने की भी फुर्सत नही है....अगर एक दिन काम न करें तो खाना नसीब न हो...इस पर या तो दुःख मना लें या बच्चों के पेट की फिक्र करें.....और पेट की फिक्र तो हमेशा ऊपर होती है....ऐसे में ये अपना दुःख छुपाकर काम में लग जाते हैं और हम इन्हे इस पर भी बातें सुनाने से बाज़ नही आते...
कभी हममें से शायद ही किसी ने सच्चे दिल से इनके बारे में सोचा हो....आप में से तो शायद कई ऐसे होंगे भी जो इनके लिए कुछ कर पा रहे हों....लेकिन मैं अब तक ऐसा कुछ नही कर पाई हूँ............आशा है कभी तो कुछ करुँगी....
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समाज की एक ऐसा वर्ग जो हमारी जरूरतों में अपनी जरूरतों को तलाशता है....हम ही उसकी जरूरतों को न समझेंगे.......सोचा ना था....
नेहा , अभी अचानक ब्लॉगवाणी से सबसे ऊपर आपकी पोस्ट दिखाई दे गई ,पढना शुरू किया तो जैसे ही यशपाल का ज़िक्र आया मुझे अच्छा लगा क्योंकि यशपाल मेरे प्रिय लेखकों में से हैं । उन्होनें बहुत साधारण कहानियों के माध्यम से मनुष्य़ के बीच वर्गभेद को रेखांकित किया है । अब आपके विचारों पर बात । समाज का यह वर्ग भी इसी उच्च वर्ग की देन है । पूंजी के असमान वितरण ने तीन वर्गों को जन्म दिया है । एक किसान मजदूर ,दूसरा मध्यवर्ग और तीसरा सम्पन्न वर्ग । जब तक यह भेद रहेगा यह खाई बनी रहेगी । इस गरीब कुचले तबके के बारे मे भी सिर्फ मध्यवर्ग ही सोचता है जिसकी अपनी सीमा है सहायता करने की । आप स्टुडेंट हैं ज़्यादा से ज़्यादा अपने जेब खर्च से कुछ बचाकर इनकी सहायता कर सकती हैं , नौकरी करेंगी तब शायद थोड़ा और ज़्यादा । लेकिन जिनके पास अनाप-शनाप पैसा है वे कभी इनकी सहायता के लिये नही आयेंगे जबकि ये लोग ही सबसे ज़्यादा पैसा उन्हे कमा कर देते है उनके संस्थानों ,कारखानो मे मजदूरी करके । यह लोग इन दबे-कुचले लोगो की ज़रूरतो को कब समझेंगे ? तो यह काम भी हम मध्य वर्ग के लोगो को करना है । सम्वाद बनाये रखिये और अच्छी किताबें पढ़िये ।मेरे ब्लॉग्स पर भी आपके विचारो के अनुरूप सामग्री उपलब्ध है ।
ReplyDeleteHum apni kshamta ke anurup jitna doosaron ke liye kar sakte hain, humein wah karne ki koshish karni chahiye.
ReplyDeleteachchhi post likhi hai aapne.
बढ़िया लेख और उन्नत लेखन!
ReplyDeleteबधाई!
aap sabhi ki sarahnaon ke liye bahut-bahut dhanyawaad...isi tarah margdarsan karte rahen...
ReplyDelete... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!!
ReplyDeletebaat ki gahraayi pasand jarur aayi magar ye samajh nahi aaya ki jab aap kisi bhawana ko itney achhey se samjh rahe hain to kyun nahi koi beeda uthyaa jaay kuch to badalega ..
ReplyDeleteMain koshish karunga yahi badi baat hai .. duniya ko observ kartey rahney se badlaaw to nahi aana kam se kam ..
achha lekhan hai
sabse pahle to mai aapka shukriya ada karna chaahunga ki aapne mere blog par aayi....thanks again.ki aapne itani achchi rachna ko creat kiya........
ReplyDeleteneha ji aapke advice par dhyaan dunga....thanks.
ReplyDeleteaapne achcha likha hai..
ReplyDeleteयशपाल की कहानी 'पर्दा' पढ़ी है आपने ?
ReplyDeleteकही ठोकर ही मिलती है
ReplyDeleteसंभलना भी वही आता
कही महलो में रहते हैं
जमाना पर्दों में छिप जाता
मुझे ठोकर ही देना तुम
तेरी दुनिया बड़ी प्यारी
तबियत भी अगर बिगड़े
सिखाती यह दुनियादारी
शिकायत हैं जिन्हें कह दू
जरा शबनम से जा पूछो
कितने साल गर्भ में धरती के
मोम के हैं बीते
फिर भी पिघलता हैं
किसी को रोशनी देकर
खुद चला जाता
वापस अँधेरे में ..........
thank you for the summary of the story. i had needed it badly.
ReplyDelete-dhara modi, dubai :)
satish Saini Narnaul Distt. Mohindergarh (Haryana)
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