मैंने ज्यादा व्यंग्य नहीं
पढ़े हैं अगर पढ़ा है तो हरिशंकर परसाई को पढ़ा है,उनसे हटकर कोई व्यंग्य पहली बार
पढ़ा..और वो व्यंग्य था ज्ञान चतुर्वेदी का बारामासी. इस व्यंग्य ने पहले तो मुझे अपने
नाम के कारण ही आकर्षित किया,कि ऐसी क्या कहानी हो सकती है जिसके लिए बरामासी नाम
रखा गया है,लेकिन पढने के बाद ये नाम बिलकुल सटीक लगता है,कहीं न कहीं ये एक ऐसी
कहानी को दर्शाता है जो शायद सदियों से चली आ रही है,पात्र बदल जाते हैं ज़रा फेर
बदल भी हो जाता है पर मोटे तौर पर हकीकत में कहानी वही होती है.
बारामासी ज्ञान चतुर्वेदी
का व्यंग्य-उपन्यास है और शुरुवात में पाठकों से मुखातिब होते हुए ही वो ये बता
देते हैं कि व्यंग्य और उपन्यास अलग-अलग लिखना जितना कठिन नहीं है,उससे ज्यादा
कठिन है व्यंग्य-उपन्यास को लिखना क्यूंकि हर पंक्ति,हर घटना में व्यंग्य लाना आसान
नहीं है.कई बार एक-एक पंक्ति को लिखने में दिन लग जाता है और व्यंग्य उपन्यास के बारे में उन्होंने सही कहा है और ये बात उनके इस व्यंग्य-उपन्यास को पढ़कर सिद्ध
हो जाती है.
बारामासी में ज्ञान
चतुर्वेदी अलीपुरा गाँव का बहुत विस्तार से वर्णन करते हैं और पढ़ते हुए आँखों के
सामने पूरे गाँव का चित्र इस तरह आ जाता है मानो आप भी वहीँ खड़े सारी घटना को देख
रहे हों,पर शायद खुद देखते हुए हमें उस घटना का उतना आनंद न मिले जितना ज्ञान चतुर्वेदी
के शब्दों से मिलता है.गाँव के हर गली-कूचे की व्यंग्यात्मक जानकारी के साथ
ही,लोगों की सोच और दिनचर्या का उल्लेख भी होता है, वर्णन इतना अच्छा है कि जिसने कभी
किसी भी गाँव में अपना वक़्त बिताने का सौभाग्य प्राप्त किया हो उन्हें अपने गाँव
के दर्शन हो जायेंगे या गाँव में रहने वाले किसी व्यक्ति के.बारामासी अलीपुरा गाँव
के हर चरित्र पर प्रकाश डालता है फिर चाहे वो गली के कुत्ते ही क्यूँ न हों.
“एक कुत्ता पास से
गुजरा.लल्ला ने यूँ ही पत्थर उठाकर दे मारा.अलीपुर में ये रिवाज़ सा था,कुत्ते को
देखते ही आदमी पत्थर का टुकड़ा उठता और कुत्ते को फेंक कर मारता. ज़मीन पर,सड़कों पर,गलियों
में पत्थर लाखों थे और अलीपुरा में कुत्ते भी सैकड़ों थे,जो कुत्तों की तरह डोलते
हुए यहाँ-वहां पिटते घुमते थे.”
हर पात्र में अलग रंग नज़र
आता है..साथ ही स्थानीय बोली में लिखे संवाद पात्रों से जुड़ने में मदद करते हैं.पात्रों
के जीवन में दुःख,परेशानी,संकट जैसे कई मौके आते हैं लेकिन ऐसे कोई भी क्षण आपको
परेशान नहीं करते क्यूंकि लेखक किसी भी पल को व्यंग्य से अछूता नहीं रखते.मध्यम
वर्गीय परिवार के टूटते और टूटने के बाद फिर देखे जाने वाले स्वप्नों की ये कथा
हास्य-व्यंग्य के साथ एक अनोखे सफ़र पर ले जाती है. जिन्हें व्यंग्य पसंद है वो तो
इसे ज़रूर पढ़ें पर व्यंग्य खास पसंद न करने वाले लोगों को भी इसे पढना चाहिए,इससे व्यंग्य
पढने में रूचि जाग जाएगी.बारामासी ज्ञान चतुर्वेदी की एक बेहतरीन रचना है.
समाज की कई परेशानी और बुराइयों
को भाषण या ज्ञान की तरह न पेश करके,इतनी सहजता से व्यंग्य के माध्यम से पेश किया
जा सकता है...सोचा न था....
बारामासी मेरी अत्यंत प्रिय किताब है. कॉमेडी और ट्रेजेडी का इतना सुरेख संगम मुश्किल से ही देखने को मिलता है. इसे मैं राग दरबारी के समकक्ष रखता हूँ
ReplyDeleteजी..मुबारक जी..आपकी बात से सहमत हूँ..ऐसी रचनाएँ कम ही मिलती हैं..राग दरबारी मैंने अब तक पढ़ी नहीं है..ज़रूर पढूंगी
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