इस फ़िल्म की कहानी काल्पनिक है..किसी भी पात्र का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से सम्बंध मात्र संयोग है..इस तरह के जो डिस्क्लेमर फ़िल्म की शुरुआत में आते हैं लोग उसे वैसे ही नज़र अन्दाज़ कर देते हैं जैसे फ़िल्म से पहले आने वाले धूम्रपान ना करने वाले विज्ञापन को..।लोग ना तो धूम्रपान करना छोड़ते हैं और ना ही फ़िल्मों में दिखायी काल्पनिक कहानी को सच करने की कोशिश करना।
अधिकांश लड़कियों को "हाइवे" में जिस तरह आलिया भट्ट किड्नैप हुई थी..वैसे ही किड्नैप होना है,क्योंकि उन्हें लगता है कि किड्नैपर रणदीप हुड्डा ही होगा,जो उन्हें देश भ्रमण करवाएगा...लड़कियों को कंगना रानावत की तरह अकेले हनीमून पर लंदन जाना है क्योंकि उन्हें लगता है कि वहाँ ढेर सारे दोस्त मिलेंगे और वो हिंदी फ़िल्मी गाना गाकर नाचेंगी तो सभी ख़ुश हो जाएँगे..."जब वी मेट" की करीना की तरह कई लड़कियाँ आम घोषणा करके 'ख़ुद को अपनी फ़ेवरेट' क़रार दे चुकी हैं..उन्हें भी लगता है कि वो अगर कभी परेशानी में पड़ भी गईं,तो कोई ना कोई शाहिद कपूर की तरह आकर उन्हें बचा लेगा और वो आख़िरी वक़्त तक ट्रेन छूटने की फ़ीलिंग समझ कर अपना जीवनसाथी बदलने की कोशिश कर सकती हैं।"हँसी तो फँसी" की परिणिती की तरह उनके लिए भी कोई अपनी शादी छोड़कर भागा आ जाएगा..उन्हें लगता है 'ये जवानी है दीवानी' की दीपिका की तरह वो भी किसी रणवीर को होली वाला गाना गाकर रोक सकती हैं।
ये तमाम बातें काल्पनिक नहीं हैं..अलग-अलग समय पर अलग-अलग लड़कियों के मुँह से सुन चुकी हूँ..'हाइवे' वाला कल फिर से सुनने मिला,तो एक साथ सब याद आ गया..दूसरे की काल्पनिकता को गले लगाकर घूमना बहुत आसान लगता है।आश्चर्य की बात ये है कोई भी मैरी कॉम या प्रियंका चोपड़ा की तरह नहीं बनना चाहता..शायद वो दोनों काल्पनिक नहीं हैं इसलिए उनसे रिलेट करना आसान नहीं..कल्पना की उड़ान में जो मज़ा है वो वास्तविकता में कहाँ।लेकिन अफ़सोस ज़िंदगी तीन घंटे की कोई काल्पनिक फ़िल्मी कहानी नहीं है।
काल्पनिकता की मखमली चादर कितनी ही अच्छी क्यों न लगे..सुकुन की नींद वास्तविकता की कठोर धरातल पर ही मिल सकती है..इस परम सच्चाई को बहुत पहले अपना लिया था..पर इसे यूँ लिखने के बारे में पहले कभी...सोचा ना था....
अधिकांश लड़कियों को "हाइवे" में जिस तरह आलिया भट्ट किड्नैप हुई थी..वैसे ही किड्नैप होना है,क्योंकि उन्हें लगता है कि किड्नैपर रणदीप हुड्डा ही होगा,जो उन्हें देश भ्रमण करवाएगा...लड़कियों को कंगना रानावत की तरह अकेले हनीमून पर लंदन जाना है क्योंकि उन्हें लगता है कि वहाँ ढेर सारे दोस्त मिलेंगे और वो हिंदी फ़िल्मी गाना गाकर नाचेंगी तो सभी ख़ुश हो जाएँगे..."जब वी मेट" की करीना की तरह कई लड़कियाँ आम घोषणा करके 'ख़ुद को अपनी फ़ेवरेट' क़रार दे चुकी हैं..उन्हें भी लगता है कि वो अगर कभी परेशानी में पड़ भी गईं,तो कोई ना कोई शाहिद कपूर की तरह आकर उन्हें बचा लेगा और वो आख़िरी वक़्त तक ट्रेन छूटने की फ़ीलिंग समझ कर अपना जीवनसाथी बदलने की कोशिश कर सकती हैं।"हँसी तो फँसी" की परिणिती की तरह उनके लिए भी कोई अपनी शादी छोड़कर भागा आ जाएगा..उन्हें लगता है 'ये जवानी है दीवानी' की दीपिका की तरह वो भी किसी रणवीर को होली वाला गाना गाकर रोक सकती हैं।
ये तमाम बातें काल्पनिक नहीं हैं..अलग-अलग समय पर अलग-अलग लड़कियों के मुँह से सुन चुकी हूँ..'हाइवे' वाला कल फिर से सुनने मिला,तो एक साथ सब याद आ गया..दूसरे की काल्पनिकता को गले लगाकर घूमना बहुत आसान लगता है।आश्चर्य की बात ये है कोई भी मैरी कॉम या प्रियंका चोपड़ा की तरह नहीं बनना चाहता..शायद वो दोनों काल्पनिक नहीं हैं इसलिए उनसे रिलेट करना आसान नहीं..कल्पना की उड़ान में जो मज़ा है वो वास्तविकता में कहाँ।लेकिन अफ़सोस ज़िंदगी तीन घंटे की कोई काल्पनिक फ़िल्मी कहानी नहीं है।
काल्पनिकता की मखमली चादर कितनी ही अच्छी क्यों न लगे..सुकुन की नींद वास्तविकता की कठोर धरातल पर ही मिल सकती है..इस परम सच्चाई को बहुत पहले अपना लिया था..पर इसे यूँ लिखने के बारे में पहले कभी...सोचा ना था....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (01-08-2016) को "ख़ुशी से झूमो-गाओ" (चर्चा अंक-2419)"मन को न हार देना" (चर्चा अंक-2421) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'