कुछ
दिनों पहले रश्मि दी से कुछ किताबें पढने के लिए ले आई थी..उनमें ही एक किताब थी
ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन..पता ही नहीं था क्या होगा उसमें..कैसी
होगी..मैं किताबों के पहले पांच पन्ने से अनुमान लगाती हूँ कि ये कैसी होगी..शायद
ये अच्छी आदत नहीं है..लेकिन जब पहले पांच पन्ने बिना रुके पढ़े जाएँ तो मुझे लगता
है कि आगे बढ़ना चाहिए..वैसे एक बार पढने के लिए किताब उठाने के बाद मैंने शायद अब
तक चार किताबें ही वापस रखी हैं..सब पढ़ी जाती हैं लेकिन जूठन पढते वक़्त कुछ अलग ही
अनुभव हुआ...कब पांच पन्ने बीते पता ही नहीं चला...बीते इसलिए लिखा क्योंकि ऐसा
लगा जैसे ये सब घटित हो रहा है..आत्मकथा अगर इमानदारी से लिखी जाए तो ऐसा ही अनुभव
होता है शायद..और इस किताब में अगर कुछ मिलेगा तो सिर्फ़ इमानदारी और कुछ नहीं.
जूठन
कहानी है ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन की..एक दलित को किस हद तक समाज उनकी निम्नता
का अहसास करवाता है ये बात हर पन्ने पर आप समझ सकते हैं..उस परिस्थिति से जूझते हुए
आगे बढ़ना बहुत साहस का काम है..जहाँ जीने के लिए भी हर पल जद्दोजहद करनी पड़ती
हो..हर पल अपमान और तिरस्कार मिलता हो..उसमें इसे अपनी नियति न मानकर आगे बढ़ने का
हौसला रखना शायद दुनिया का सबसे कठिन काम होगा..लेकिन ऐसे माहौल में भी एक दलित
बालक ने ये हौसला दिखाया और उसके पिता ने इसे अपनी ‘जाति’ सुधारने का एक अवसर
देखकर साथ दिया उसका..स्कूल तक पहुँच जाना ही काफी नहीं था..वहां पढना भी कम
मुश्किल भरा नहीं था..ज़रा सोचिये जब सारे अध्यापक और सहपाठी आपको नीची नज़रों से देखें
और हर पल आपका मज़ाक उड़ायें..और आपको पढने की बजाय साफ़-सफाई के काम में लगा दिया जाए..तो
क्या आप वहां फिर कभी जाना चाहेंगे..?..शायद नहीं..लेकिन उसे तो आगे बढ़ना था किसी
भी हाल में इसलिए उसने ये सारे भेदभाव भी झेले लेकिन आगे बढ़ने की अपनी चाह में कमी
न आने दी..
इसी
तरह अपने जीवन के हर पहलू को बिना झिझके ओमप्रकाश वाल्मीकि ने साझा किया है..यहाँ
तक की आखिर वक़्त तक उनके सरनेम ‘वाल्मीकि’ की वजह से कितना कुछ झेलना और सहना पड़ा
ये भी उन्होंने बताया है..कई-कई बार उन्हें ब्राह्मण समझ लिया जाता था लेकिन वो ये
बात सामने आते ही अपनी जाति बताने में एक पल की भी देरी नहीं करते थे..ये जानते
हुए कि ये बात सामने आते ही उनसे प्रेम से पेश आने वाला उसी वक़्त उनसे दूर हो
जाएगा और एक अपरिचित सा व्यवहार करने लगेगा..उनके जीवन में ऐसी घटनाएँ कई बार
हुई..लेकिन उन्होंने कभी खुद को छुपाने की कोशिश नहीं की...यहाँ तक की उनकी पत्नी
तक उन्हें उनका सरनेम बदलने के लिए कहा करती थीं पर वो कभी इस बात के लिए ख़ुद को
तैयार नहीं कर पाए..शायद इतना कुछ देखने के बाद उन्हें इस बात की परवाह ही नहीं रह
गयी थी और उनका स्वाभिमान उन्हें रोकता था.
“मेरे बाहर के ही नहीं,मेरे अपने भी इस सरनेम से
परेशान होने लगे थे..मेरे पिताजी अपवाद थे..मेरी पत्नी चंदा मेरे सरनेम को कभी
आत्मसात नहीं कर पाई..न इसे अपने नाम के साथ जोडती है..अपने नाम के साथ वो
वंशगोत्र खैरवाल जोड़ना ज़्यादा पसंद करती है....दफ्तर में भी कई अधिकारी सहकर्मी
तथा अधीनस्थ कर्मचारी इस सरनेम के कारण मेरा मूल्यांकन कम करके आंकते हैं..शुरू-शुरू
में गुस्सा आता था..विरोध तो अब भी करता हूँ लेकिन अलग-अलग ढंग से..अब कुछ सहजता
से लेता हूँ,क्योंकि ये एक सामाजिक रोग है जो मुझे झेलना पड़ रहा है..‘जाति’ ही
जहाँ मान-सम्मान और योग्यता का आधार हो,सामाजिक श्रेष्ठता के लिए महत्वपूर्ण करक
हो,वहां यह लड़ाई एक दिन में नहीं लड़ी जा सकती है..लगातार विरोध और संघर्ष की चेतना
चाहिए जो मात्र बाह्य ही नहीं,आंतरिक परिवर्तनगामी भी हो,जो सामाजिक बदलाव को दिशा
दे..”
जूठन
समाज का एक कड़वा सच सामने लाता है...इस किताब में न जाने ऐसी ही कितनी घटनाओं का
ज़िक्र है कि आपको पढ़ते हुए समाज के जाति-धर्म के नाम पर होने वाले भेदभाव से
बेचैनी का अनुभव होगा..किसी भी तबके से आते हो आखिर इंसान तो इंसान ही है..शायद अब
इस तरह का भेदभाव उतना नहीं होता होगा लेकिन फिर भी पूरी तरह से ख़त्म हो गया ये
कहा नहीं जा सकता...क्यूंकि किसी न किसी रूप में ये असलियत हमारे-आपके सामने आ ही
जाती है...मुझे तो नहीं लगता कि हममें से कोई भी ऐसा होगा जिसने इस भेदभाव को
साक्षात् नहीं देखा होगा या इसका हिस्सा नहीं रहा होगा..आप किसी भी ओर हो सकते
हैं..भेदभाव करने वाले की ओर या सहने वाले की ओर...भले ही आप इस भेदभाव से आहत हुए
हों लेकिन अगर आपने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ न उठाई हो तो आप इसका हिस्सा ही कहलायेंगे..और
इस तरह तो मैं भी खुद को इसका हिस्सा ही पाती हूँ..शर्मिंदगी है पर सच है.
हर
किताब को पढ़ते हुए कुछ पंक्तियाँ,कुछ भाव बहुत अच्छे लगते हैं और जब किताब के बारे
में कुछ लिखती हूँ तो उसे शामिल कर लेती हूँ लेकिन यहाँ तो हर घटना..हर शब्द इस
तरह बीतते गए कि सबकुछ साथ है और लिखने के लिए कुछ भी नहीं..फिर भी एक पैराग्राफ
को शामिल कर रही हूँ क्यूंकि लगता है ये बात इस आत्मकथा का सार है..
“भारतीय
समाज में ‘जाति’ एक महत्वपूर्ण घटक है..‘जाति’ पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय
कर देती है..पैदा होना व्यक्ति के अधिकार में नहीं होता..यदि होता तो मैं भंगी के
घर क्यों पैदा होता?जो स्वयं को इस देश की महान सांस्कृतिक धरोहर के तथाकथित
अलमबरदार कहते हैं,क्या वे अपनी मर्ज़ी से उन घरों में पैदा हुए हैं? हाँ,इसे
जस्टिफाई करने के लिए अनेक धर्मशास्त्रों का सहारा वे ज़रूर लेते हैं..वे धर्मशास्त्र
जो समता,स्वतंत्रता की हिमायत नहीं करते,बल्कि सामंती प्रवृतियों को स्थापित करते
हैं..”
इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मुझे बार-बार महाभारत के कर्ण की याद आती रही..जब कर्ण के बारे में पढ़ा था तब भी इसी तरह के भाव मन में आया करते थे..एक समर्थ इंसान को उसकी जाति रोका करती थी..कुछ इसी तरह के भाव इस किताब के हर पन्ने को पढ़ते हुए भी आते रहे...हर पल ये सब झेलना पड़ा तो ओमप्रकाश वाल्मीकि को कई दोस्त ऐसे भी मिले जो जाति धर्म से परे दोस्ती निभा पाए..ऐसे लोगों के लिए मन श्रद्धा से भर उठता है.
ये
कहानी दिल पर चोट करती एक मार्मिक कहानी है और किसी ने ये सब सच में झेला है जानकर
बहुत दुःख होता है..जाने अब भी कितनों को ये सब झेलना पड़ता होगा..एक किताब मुझे इस
तरह समाज की कड़वी सच्चाई से रूबरू करवाएगी..सोचा न था....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-07-2016) को "गूगल आपके बारे में जानता है क्या?" (चर्चा अंक-2393) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुपर
ReplyDeleteNo words 😞
ReplyDeletevery sad
ReplyDeleteplease support me
ReplyDeletehttps://youtu.be/2kwW0OsHlMI