Monday, April 27, 2020

ज़िंदगी का पासा

कल एक ख़बर सामने आयी..ऑनलाइन लुडो के खेल में जब पत्नी ने पति को हरा दिया तो पति ने ग़ुस्से में उसके रीढ़ की हड्डी तोड़ दी। मतलब एक तो अपने पास रीढ़ है ही नहीं जिसके है उसकी तोड़ दो। खेल में भी हार बर्दाश्त नहीं वाला जो विचार है वो इस तरह हिंसक होने में देर नहीं करता।

बचपन में ऐसे बच्चे होते हैं जो दाम आने पर कभी रोते हुए घर चले जाते हैं या अपने घर से किसी को बुलाकर लाते हैं जो बाक़ी सारे बच्चों को समझाता है कि इसके बदले कोई और दाम दे ये बच्चा है पर तुम समझदार हो। अक्सर बच्चे इस बात को मान जाते हैं या फिर उसके साथ खेलना बंद कर देते हैं वो इस तरह आड़ में आगे बढ़ता है। उसके लिए खेल यही है कि सभी को हराना है लेकिन अपनी हार को जीत में बदलने के लिए रोना है या किसी बड़े को ले आना है।

इसी तरह बच्चा है..बच्चा है कहकर हम जानबूझकर जिताते चले जाते हैं और हार क्या होती है ये बच्चे को पता ही नहीं चलता..बाद में भी इनकी हार या फेल होने का का कारण ये नहीं बल्कि कोई और होता है..कोई इंसान...कोई परिस्थिति और कुछ नहीं तो क़िस्मत और भगवान।

पहले बच्चे से बेवजह हारकर उसे जिताते माँ-बाप भी अपने बच्चे को कभी भी हारने और फ़ेल होने की इजाज़त ही नहीं देते और ऐसी कोई भी स्थिति सामने दिखते ही बच्चा बुरी तरह घबरा जाता है क्योंकि उसे पता ही नहीं कि हारकर कैसे जीते हैं। इस स्थिति के बुरे परिणामों के उदाहरण से अख़बार भरे पड़े हैं..फ़ेल हो जाने के डर से ही बच्चे दुनिया छोड़ जाते हैं।

अभी समाज में सबसे ज़्यादा ज़रूरी है लोगों को हार और फ़ेलियर को स्वीकारने योग्य बनाना और फिर भी आगे बढ़ने का हौसला देना। यहाँ वो लोग भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं जो हारने वाले का हौसला बढ़ाने की बजाय उनका मज़ाक़ उड़ाते हैं। कहने को एक साधारण सा खेल है पर बात ज़िंदगी भर की समझ पर आ चुकी है। हार को न स्वीकारने की आदत इस हद तक पहुँचेगी...सोचा ना था...

(चित्र- इंटरनेट से साभार) 

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