किसी ने सच ही कहा है इच्छा कभी खत्म नहीं होती कुछ मिलता है
तो उससे ज्यादा पाने की इच्छा होती है....ऐसी ही एक इच्छा मेरे मन मे हमेशा से कुलबुलाती
रहती थी...जिसे पूरी करने के लिए मैं तत्पर रहती थी....अकेले रहने की इच्छा...वैसे
इंसान अकेलेपन से भागता है...लेकिन भागने के लिए अपने डर की वजह पता होना भी ज़रूरी
होता है...मुझे तो पता ही नहीं था कि अकेले रहना क्या होता है...? जब भी
अपनी किसी सहेली को देखती जो यहाँ परिवार से दूर रहकर काम कर रही है और अक्सर अपने
परिवार को याद करती है...मन करता उससे अपना एक दिन बदल लूँ....वो तो मुझसे दिन बदल
लेतीं और घर आकर परिवार का मज़ा ले लेतीं लेकिन मुझे बदले मे उनका दिन नहीं मिल पता...अक्सर
सहेलियों से सुनने मिलता कि उन्होने हॉस्टल मे कैसे दिन बिताए...वैसे तो अधिकांश दुखी
होकर ही ये सारी बातें बताती थीं...वैसे भी सुख बांटना सभी को पसंद नहीं होता...तो
मेरा मन करता कि काश मैं भी एक बार ये दुख उठाकर देखती...जिसे दुख न हो उसे सुख भी
दुख देता है...
मेरे दुख मांगने का माजरा ये था कि घर मे सबसे छोटी होने के
कारण सभी हाथों हाथ रखते..कुछ भी चाहिए हो तो बस नाम कह दो घर पर ही ल दी जाती...स्कूल
जाना हो तो रिक्शे मे घर से जाओ और आते समय रिक्शा वाले बहिया के साथ दर्जनों बच्चों
के साथ आओ,स्कूल मे अकेले होने का सवाल ही नहीं...आगे की पढ़ाई प्राइवेट हो
गयी...परीक्षा के अलावा न कभी कॉलेज का मुह हमने देखा न उसने....दूसरे राज्य मे परीक्षा
देने जाने के लिए भी कोई न कोई साथ होता या अपने रिश्तेदार के घर रुकना होता...वहाँ
तो मजाल है कोई पल भर भी अकेला छोड़ दे...सोसाइटी के कल्चर प्रोग्राम मे भीड़,डांडिए मे भीड़,कभी मम्मी कहीं बाहर गईं हों तो आस पड़ोस
के लोग ज़रा ज्यादा ही ख्याल करने लगते...उस समय तो सोने के लिए भी इजाजत लेनी पड़ जाती....बाद
मे मुंबई जैसे शहर मे जहां लोग साथ रहते हुये भी अकेले होते हैं...मुझे अकेलापन कहीं
नहीं मिला...
मैं यही सोचती कि कभी तो भगवान मेहरबान होंगे और मुझे भी अकेलेपन
का आनंद मिलेगा...और कुछ दिन पहले जब मम्मी-पापाजी रिश्तेदार के घर एक दुख की घड़ी मे
गए तो घर पर मैं अपने दोनों भाइयों के साथ रह गयी...एक भाई तो ऑफिस चला जाता दूसरा
घर से ही काम करता...एक दिन उसे ज़रूरी मीटिंग मे जाना पड़ा और दूसरे भाई को भी घर आने
मे देर होने वाली थी...तो इतने सालों बाद मुझे अपना पहला अकेलापन मिला...
मैं बहुत खुश थी...आखिर मुझे बरसों से सोची गयी चीज मिल गयी
थी...बस यही सोच थी कि कैसे मैं इस अकेलेपन को बिताऊँ...क्या ये करूँ....?नहीं...ऐसा
करती हूँ...? नहीं...नहीं कुछ तो अलग करना चाहिए....अचानक ऐसा
लगा जैसे मैं अकेलेपन को नहीं किसी त्योहार को मनाने की तैयारी कर रही हूँ...फिर मन
अचानक शांत हो गया..मैंने के पुस्तक निकाली और पढ़ने लगी..कुछ देर बाद उठी और गुनगुनाते
हुये शाम के खाने की तैयारी की...बहुत प्यार से खाना बनाया...बाकी दिनों से कुछ ज़्यादा
चीजें बनाई...और सारा काम करते-करते भैया घर आ गए...
रात को जब सोने वाली थी तो मन ने मुझसे एक ही सवाल किया...ये
सब तो तू रोज़ करती है..इसके लिए अकेलेपन की क्या ज़रूरत थी...?सवाल तो
सही है...क्या मैंने अकेलेपन को अच्छी तरह से नहीं जीया या अकेलेपन मेरे लिए नया नहीं
था...क्यूंकी मैं सबके साथ रहते हुये भी जब अपने मन की बातें सुनती हूँ तो खुद के साथ
ही होती हूँ...उस दिन मैंने ये जाना कि अकेलेपन के लिए अकेला रहना ज़रूरी नहीं...लोगों
के बीच रहकर अकेले रहना बहुत बड़ी कला है...
अकेलापन कस्तुरी के समान है...जिसकी खुशबू मे पागल होकर हम मृग
की तरह उसे इधर-उधर ढूंढते रहते हैं...लेकिन वो तो हमारे अंदर ही है....मैं इतने सालों
से जिस अकेलेपन की चाह मे थी वो तो मुझसे समय-समय पर मिलता रहा...एक दिन अकेलेपन के
साक्षात्कार से मैं उसे इतनी अच्छी तरह जान पाऊँगी...सोचा ना था...
मैं कहीं भी रहूँ, खुद को हमेशा अकेला ही पाया है.
ReplyDeleteनिश्चित तौर पर आपने इस अकेलेपन का खूब आनंद लिया होगा...वैसे भी दुःख तो वह एकांत देता है जो दूसरों से हमें मिलता है जो एकांत हम खुद चुनते हैं वो तो बड़ा रुमानी होता है। अच्छा विवरण!!!
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन गुनाह किसे कहते हैं ? मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteअकेलेपन के लिए अकेला रहना जरूरी नहीं....सच कहा
ReplyDeleteअच्छा विवरण
ReplyDelete