ज़िन्दगी में सभी ने मुझे कुछ न कुछ सिखाया है..लेकिन अगर मैं किसी की सबसे
ज्यादा शुक्रगुज़ार हूँ तो वो हैं मुझे वॉइस् ट्रेनिंग देने वाले वनमाली सर..जब
वहां गयी थी तो मुंह से शब्द नहीं निकलते थे..पर उन्होंने शब्दों में भाव लाना
सिखाया...या कहूँ उन्होंने ही आत्मविश्वास दिलाया मुझे..जिसके कारण मैं लोगों के
सामने बोलने लायक हो सकी..उनकी वॉइस् ट्रेनिंग का फायदा न सिर्फ मेरी आवाज़ में हुआ
बल्कि मेरे व्यक्तित्व और मेरी ज़िन्दगी में भी हुआ...अपने उपनाम को सही साबित करते
हुए वनमाली सर ने मेरे व्यक्तित्व को संजोया और सींचा भी...मेरा सौभाग्य रहा कि
मुझे वनमाली सर का सानिध्य मिला..एक सच्चे गुरु की तरह उनका सीखाना कभी पूरा नहीं
होता था..और ना ही सीखना..हर वक़्त कुछ न कुछ सीखते ही रहते..उन्हें हिंदी नहीं आती
थी पर वो कोशिश करते..हमेशा कहते कि तुम मुझसे हिंदी में बात करो...अगर न समझ आता
तो मतलब पूछते..और हर कठिन शब्द को दोहराते..कभी कोई उनके सामने हिंदी की किसी बात
पर कुछ कह दे जो उन्हें सही न लगे तो तुरंत मुझसे पूछते..सही है या नहीं...
हमेशा मुझे कहते तुम्हें अपनी हिंदी और सुधारनी चाहिए..मुझे ज्यादा से ज्यादा
पढने के लिए प्रोत्साहित करते..एक बार अपना लिखा उनके सामने पढ़ा उस दिन से कभी भी
किसी भी विषय पर लिखने के लिए कह देते..और जब उन्हें सुनाती तो हमेशा कहते तुम
अच्छा लिखती हो...इस पर ध्यान दो..मेरे विविध भारती में काम करने की बात जब उन्हें
बताई तो बहुत खुश थे..आखिरी बार जब उनसे मुलाक़ात हुई तो काफी देर तक मुझे सुनते
रहे फिर उन्होंने कहा..तुम ऑल इंडिया रेडियो वालों जैसे ही बातें करने लगी
हो..उनसे पूछी पर ये सही है या नहीं..तो उन्होंने कहा था..”कम से कम अब ठहराव आया
तुम्हारे बोलने में”..ये उनकी हमेशा की आदत थी बिना विषय की बात करने देते थे अपने
स्टूडेंट्स को और फिर एकाएक रोककर बताते कि पिच कैसी है..वॉल्यूम क्या रखना
चाहिए..और किस बात पर ध्यान देना चाहिए जिससे और अच्छी आवाज़ होगी..हर पल उनका ध्यान
सिर्फ हमें सिखाने में ही रहता.
ट्रेनिंग पूरी होने के पहले ही मैंने उनकी ऑफिस ज्वाइन कर ली थी..पर कभी
ट्रेनिंग टाइम और ऑफिस का टाइम फिक्स नहीं होता था..जैसे ही कोई स्टूडेंट आये वो
मुझे भी बुला लेते सीखने के लिए..भले ही ऑफिस का कोई बेहद ज़रूरी काम रुक जाए..एक
बार की बात याद है उन्होंने पेपर में कहीं फैज़ अहमद फैज़ की ग़ज़ल का शेर देख लिया..बस
पेपर कटिंग अगले दिन मेरे सामने थी और अगला काम उस ग़ज़ल को ढूँढना..नेट से पूरी ग़ज़ल
निकली गयी..”मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग”...कई उर्दू अल्फाजों का
अर्थ उस वक़्त नहीं बता पायी उन्हें...हम दोनों परेशान थे कि अब क्या किया जाए..उसी
दिन रेडियो एनाउंसर मनोहर महाजन जी सर से मिलने आये उनसे सारे अर्थ पूछे गए...फिर
अगला काम मुझे मिला उसे याद करना और सारे उर्दू के अल्फाजों का सही उच्चारण करना
है...किसी तरह कई-कई बार सुनकर याद की थी वो ग़ज़ल..और जब सर को सुनाई तो उनके चेहरे
पर संतुष्टि थी.
इसी तरह का मौका आया था जब धर्मवीर भारती के प्रसिद्ध नाटक “अँधायुग” से
गांधारी के शाप वाला हिस्सा हमें मिला..सर को वो हिस्सा पूरे भाव के साथ चाहिए
था..आज भी याद है एक दिन में दस-दस..बारह-बारह बार उसे सुनाया करती थी पर उन्हें
कभी पॉज सही नहीं लगते तो कभी भाव ठीक नहीं आते..इस तरह कोशिश करते-करते शायद
पंद्रह-बीस दिन बीत गए..और मुझे किसी और पैसेज पढने की इजाज़त नहीं थी..एक दोपहर
में सारे पॉज बदलकर सर के सामने बोली..तो उन्हें फिर भी पसंद नहीं आया..बोले थोड़ी
देर में फिर करो...बहुत बुरा लगा उस दिन..ऐसा लगा मैं कभी आगे बढ़ पाउंगी या नहीं
और ये सब सोचते हुए दुःख हुआ..इतनी बार बोल-बोलकर याद तो पूरा हो चूका था...पांच
मिनट बाद फिर से बोलते समय सारे शब्द मुंह से यूँ निकलने लगे जैसे ये किसी कहानी
का हिस्सा नहीं बल्कि मेरे अपने शब्द हैं...बोलते-बोलते कब रोने लगी पता नहीं चला..पर
रुकी नहीं..और जब सब ख़त्म हुआ तो सर खुश थे..और मैं खुश होने की बजाय रोये चली जा
रही थी आंसू रुक ही नहीं रहे थे...उस दिन के बाद से कोई भी सर से मिलने आये मुझे
गांधारी वाला हिस्सा करके दिखाना होता था...इतनी बार किया कि वहां सब मुझे
“गांधारी” कहते लगे थे .. एक दिन आँख का रूटीन टेस्ट करवाकर लौट रही थी तो उजाले
के कारण आँखों पर रुमाल ढँक ली..पापाजी ने कहा ये ठीक है वैसे भी तू “गांधारी” है.
वनमाली सर हमेशा ज़िन्दगी का हिस्सा रहे हैं और रहेंगे...उनकी सिखाई हर बात याद
है..साथ है..आज सुबह 88 साल की उम्र में उनका स्वर्गवास हो गया..लेकिन मुझे दुःख
नहीं हो रहा..उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का हर पल किसी न किसी को..कुछ न कुछ सिखाते
हुए बिताया है..खुलकर ज़िन्दगी जी है..और हम जैसे जाने कितने पौधे रोपे हैं,जो
दुनिया में उनका नाम रोशन कर रहे हैं और कुछ उनकी विद्या को आगे भी बढ़ा रहे हैं..ये
सच है कि हम सीखाने में उनकी बराबरी कभी नहीं कर पायेंगे पर अगर दस प्रतिशत भी कर
पायें तो भी बहुत है.
इस बात का यकीन है कि सर जहां भी रहेंगे आसपास वालों की पीच,वॉल्यूम और पॉज का
ज्ञान ज़रूर बढ़ जाएगा..वो सिखाते रहे हैं और सिखाते रहेंगे..एक गुरु हमेशा साथ रहता
है.. घर पहुँचते ही अचानक एक गहरी सांस छोड़ी..तो याद आया..यही तो हमारा पहला वॉइस्लेसन
था..यादें बहुत हैं..बातें बहुत हैं..सब याद साथ रहेगी..आपकी हर बात साथ रहेगी..बस
आज का ये दिन याद नहीं रखना..क्यूंकि ये दिन तो कभी सपने में भी...सोचा ना
था....
रोचक ंंंंंंंंं
ReplyDeleteएक शिष्या अपने गुरु को इससे बढ़कर और क्या गुरुदक्षिणा दे सकती है कि उनके व्यक्तित्व को लफ़्ज़ों में ढाल कर अमर कर दें.
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-05-2016) को "अगर तू है, तो कहाँ है" (चर्चा अंक-2349) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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ReplyDeleteEbook Publishing company in India