आज पढने के लिए कुछ नई किताबें निकालते समय “काशी का
अस्सी” पर नज़र पड़ी.पिछले साल इस किताब को पढ़ा था मैंने..पर इसके बारे में कुछ लिखा
नहीं था..दरअसल इसे पढने के बाद समझ ही नहीं आया कि क्या लिखूं इसके बारे में...पर
आज जब दुबारा ये नज़र आई तो लगा इसके बारे में कुछ तो लिखना ही चाहिए.
एक साल हो गया है काशीनाथ सिंह के लिखे इस उपन्यास को
पढ़े हुए लेकिन न तो उस वक़्त ऐसा कुछ पढ़ा था और न ही आज तक ऐसा कुछ पढ़ा है..आमतौर
पर उपन्यास में कहानी होती है..लेकिन इस उपन्यास में कहानी होते हुए भी कहानी नहीं
है.ऐसा लगता है जैसे इसके ज़रिये लेखक हमें काशी के अस्सी घाट की सैर कराने ले जाते
हैं.काशी के अस्सी घाट का वर्णन करते हुए काशीनाथ सिंह लिखते हैं:
“शास्त्रों का मत है कि काल दुनिया का चक्कर मारकर
यहीं विश्राम करता है – भांग-बूटी छानकर .बल्कि यूँ कहिये कि वो अपने
नौकरों-चाकरों को चक्कर मरने के लिए छोड़ देता है और खुद लेटा रहता है घाट की किसी
पटिया या चौतरे पर,इसलिए जहाँ दुसरे नगरों को “राम’ का नाम लेने के लिए फुर्सत
निकालनी पड़ती है वहीँ अस्सी वालों को “काम” के लिए फुर्सत का समय देखना पड़ता है.. “राम”
के लिए तो फुर्सत ही फुर्सत है.”
काशीनाथ सिंह आपको इस उपन्यास के ज़रिये मोहल्ला अस्सी
में ले जाते हैं और इतनी अच्छी तरह से की आपको पढ़ते हुए लगेगा जैसे आप वहीँ है बल्कि
ऐसा लगता है जैसे ये सारे पात्र आपके इर्दगिर्द मौजूद हैं और आप हर उस घटना को
अपनी आँखों से देख रहे हैं.
“जेल से अच्छी जगह तो दुनिया में कोई नहीं..देखिये तो
इतिहास के सारे बड़े-बड़े काम वहीँ हुए हैं..कृष्ण तो पैदा ही वहीँ हुए,गांधी,नेहरु,लोहिया,जयप्रकाश,मंडेला-सबने
वहीँ सीखा,लिखा-पढ़ा,काम किया,नाम किया..मुझ में भी वहीँ चेज आया”
हर पात्र इतने अपने लगते हैं जैसे आप बरसों से उनसे मिलते
रहे हों..और इस तरह पात्रों से जुड़ने का कारण है उपन्यास की भाषा,जो स्थानीय बोली
को ध्यान में रखकर चुनी गयी है.
“सूरज सबेरे-सबेरे बन-ठनकर लाल-पीले रंगों में घर से
निकलता है,सफ़ेद झक आसमान की छोटी पर पहुंचता है और शाम ढलते-ढलते गिर पड़ता है –इसी
पप्पू की दुकान में,इसी काठ की मेज़ पर,इसी शीशे के गिलास में....चलता है गोला
बनकर,गिरता है गोली बनकर-भांग की हरी गोली”
हर घटना का
बेहतरीन चित्रण..जो आपको उपन्यास की पृष्ठभूमि से जोड़ता है.काशीनाथ सिंह की लेखन
शैली इतनी रोचक और धाराप्रवाह है कि एक बार पढने बैठो तो पूरा पढ़े बिना उठा ही
नहीं जाता..(मुझे एक दो बार उठना पड़ा पर बहुत मन मार के)कभी-कभी ही ऐसा कुछ पढने में
आता है.
एक साल बीतने के बाद भी इस उपन्यास की यादें ऐसी हैं
जैसे हाल ही में पढ़ा हो..ऐसा सभी किताबों के साथ नहीं होता..कई बार एक-दो पृष्ठ पलटने
पड़ जाते हैं और याद ताज़ा हो जाती है..पर आज तो काशी का अस्सी देखते ही मानो फिर
अस्सी घाट की सैर हो गयी..वैसे कभी गयी नहीं हूँ अस्सी घाट..लेकिन लगता है वो
बिलकुल ऐसा ही होगा..
किताबों से काल्पनिक दुनिया की सैर तो बहुत की है पर
किताब कभी दुनिया की किसी जगह की सैर
किताबों के ज़रिये होगी..सोचा ना था....
धन्यवाद रूपचंद्र जी
ReplyDeleteमैंने ली है किताब पर अब तक पए़ नहीं पाई। अब पढूंगी। धन्यवाद
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