आज टीवी पर किसी
कार्यक्रम का विज्ञापन आ रहा था हिंदी में...जहाँ वैज्ञानिक को वैग्यानिक
लिखा था..वहीँ अदृश्यता को आद्रिश्यता लिखा था...ऐसी ग़लतियाँ अक्सर
देखने मिलती है...न सिर्फ मनोरंजक चैनल्स में बल्कि न्यूज़ चैनल्स में भी..ये
टाइपिंग की ग़लतियाँ तो नहीं हैं..ये हिंदी भाषा के ज्ञान की कमी है..इन दिनों हिंदी
का स्तर गिरता जा रहा है..हैरत की बात तो ये हैं कि इस तरह की ग़लतियाँ जितनी
टेलिविज़न और इन्टरनेट में देखने मिलती है उतनी ही प्रिंट मिडिया में भी देखने मिल
रही है...अभी शायद महीने भर पहले की बात है एक हिंदी अखबार में पहले पन्ने पर चश्मे
से सम्बंधित कोई खबर छपी थी..जहाँ शीर्षक में ही चश्मे की जगह चस्मा
छपा था...वैसे तो पहला पन्ना हो या आखिरी ऐसी ग़लती नहीं होनी चाहिए..पर पहला पन्ना
होने से हर एक की नज़र उस पर पड़ेगी..तो कम से कम हिंदी जानने वालों के बीच तो उस अखबार
की साख गिर ही सकती है..
अगर कोई इस
ग़लती को नज़र अंदाज़ कर भी दे तो उसी दिन मैं उसी अखबार में शब्द पहेली(वर्ग पहेली)
भर रही थी,उसमें एक जगह औरत,स्त्री इन शब्दों का पर्याय
भरना था तीन अक्षरों में..दूसरे शब्द के जवाब भरने के कारण आख़िरी अक्षर 'ला' आ चुका था,इसलिए 'महिला' शब्द भर दिया..पर उसके बाद
आसपास के बाक़ी शब्द नहीं भरे गए..सूझ ही नहीं रहा था,'महिला' के अलावा और कौन-सा शब्द आ सकता
है..जब अगले दिन जवाब देखा तो पाया वहाँ "अबला" शब्द लिखा है।बहुत
आश्चर्य हुआ..स्त्री और औरत का पर्याय 'अबला' कैसे?..आख़िर कौन है ये इंसान जो शब्द
पहेली(वर्ग पहेली) बनाता है पर उसे ख़ुद शब्दों के पर्याय नहीं मालूम..अगर 'अबला' ही लिखवाना था तो वहाँ 'कमज़ोर स्त्री' या सबला का विलोम जैसा विकल्प
चुना जा सकता था।लगता है शब्द पहेली लिखने वाले/वाली को हिंदी की कम जानकारी
थी.
कहते हैं जिस
भाषा का ज्ञान बढ़ाना हो उस भाषा का अखबार पढना चाहिए..ऐसे में अखबार की भूमिका
कितनी ज़रूरी होती है ये तो हम सभी जानते हैं...कम से कम हिंदी अखबारों में लिखने
या प्रूफ रीडिंग जैसे कामों के लिए तो ऐसे लोगों को रखना चाहिए जिन्हें हिंदी का
अच्छा ज्ञान हो..इतना भी हो जाए तो शायद कभी हम किसी को कह सकें की हिंदी सुधारने
के लिए हिंदी अखबार पढ़ें...अभी तो इतनी ही उम्मीद करना बहुत है..शब्द पहेली की तो
बात ही क्या करें..?..वो तो एक अलग ही मुद्दा है..शब्द पहेली को तो हल करने वाला
ही..शायद अगले दिन उत्तर से जांच सकता है..और शब्द पहेली बनाने वाला/वाली तो खुद ही
भाषा की पहेली में उलझा लगता है.
हिंदी हमारी मातृभाषा
है..देश में मातृभाषा का वही हाल है जो घर-घर में माँ का है..यह एक कड़वा सच है पर अक्सर
बच्चे माँ की फ़िक्र तभी करते हैं जब माँ बहुत बीमार हो जाती है..उससे पहले न माँ
कभी बच्चों से अपनी तकलीफ बांटती है और न ही बच्चे ध्यान देते हैं...काश इस बार हम
वक़्त पर ध्यान दे सकें.
कभी देश में अपनी प्यारी भाषा हिंदी की ये दुर्दशा देखने मिलेगी...सोचा
ना था....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (18-05-2016) को "अबके बरस बरसात न बरसी" (चर्चा अंक-2345) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
dhnywaad
ReplyDeleteआज की बुलेटिन विश्व दूरसंचार दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteधन्यवाद हर्षवर्धन जी
Deleteवाजिब सवाल उठाये हैं आपने
ReplyDeleteएकदम सच्ची पोस्ट
धन्यवाद अन्तर सोहिल जी
Deleteबिल्कुल सही कहा
ReplyDeleteधन्यवाद संध्या जी
Deleteबहुत सुन्दर लेख विचारणीय ...अच्छे सुझाव और सवाल
ReplyDeleteभ्रमर ५
धन्यवाद सुरेन्द्र जी
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