Thursday, April 9, 2009
द्रोण की आत्मकथा
आज मैंने "द्रोण की आत्मकथा"किताब पूरी कर ली,लेखक मनु शर्मा ने इसे बहुत ही अच्छे ढंग से पेश किया है.अक्सर ऐसा होता है की हम किसी आदरणीय व्यक्ति के बारे में लिखते समय अच्छी तरह से अपनी बात को नही रख पाते और कई बार हम वास्तविकता से ही कोसों दूर भटकते रहते हैं;लेखक को भी ये मलाल रहता है की वो अपने विचार पाठकों तक ठीक से नही पहुँचा पाया,वहीं दूसरी ओर उसे आलोचना का भी डर होता है;लेकिन मनु शर्मा ने अपनी लेखनी पर अपने विचारों के अलावा किसी को भी हावी नही होने दिया.कई जगह पर,जहाँ उन्होंने अलग-अलग परिस्थितियों में आचार्य की मानसिक स्तिथियों को दर्शाया है,ऐसा लगता है जैसे ये आचार्य के द्वारा ही लिखे गए हों उन जगहों पर द्रोण भी किसी अन्य साधारण व्यक्ति की तरह ही व्यवहार करते हैं,जहाँ दुनिया के इतिहास में उनकी छवि एक महान आचार्य की है ,वहीं उन्हें इस तरह से पेश करना आसान नही है;यहाँ मनु शर्मा ने उन्ही के शब्दों में उनके जीवन को बहुत ही आसानी से पेश किया है.द्रोण के द्बारा एकलव्य के अंगूठे को गुरु दीक्षा के रूप में ले लेने की बात तो सभी को पता है;लेकिन मनुजी ने इसे भी बखूबी उपयोग किया है,उन्होंने इस घटना के बाद भी कई बार आचार्य को उनके इस पापकर्म से सामना कराया है ;अंत समय तक उन्हें ये बात सताती रही .इसी तरह द्रोपदी से उन्हें तब तक द्वेष नही था,जब तक उन्हें ये बात पता नही चली थी की;द्रोपदी को यज्ञ से उनके विनाश के लिए उत्पन किया गया है,और ये पता चलते ही वो कही न कहीं पांडवों से भी दूर होते चले गए.यही एक बहुत बड़ा कारण था कि द्रोन ने चीर हरण के समय कोई विरोध नही किया,उनकी इस मनस्थिति को मनुजी ने यूँ जाहिर किया है-"रह-रहकर मेरे मन में यह बात उठती थी कि मुझे इस अन्याय का विरोध करना चाहिए.स्त्री को सभा में लाकर अपमानित करना स्वयं में अन्याय है.पर मेरी नीचता और स्वार्थ ने मेरी जबान पकड़ ली थी.-----नीचता?हाँ,मेरी बहुत बड़ी नीचता थी कि पिता के प्रति अपनी प्रतिहिंसा मैंने पुत्री पर आरोपित कर दी थी.द्रोपदी का अपमान मुझे लगता था कि स्वयं द्रुपद का अपमान हों रहा है .मेरे मन में एक विचित्र प्रकार का संतोष था.इस नीचता कि भी कोई पराकाष्ठा हों सकती है!आज में प्रायश्चित स्वरुप ही इस घटना का उल्लेख कर रहा हूँ.-------और स्वार्थ?मेरी धमनियों में कौरवों का नमक प्रवाहित था.उन्ही कि कृपा से मैं भिक्षाटन करने वाला ब्राह्मण राजा हों गया था.इसी से मेरी विद्या,मेरा विवेक,और मेरा न्याय सचमुच मेरे अपने नही थे." इसी तरह इस किताब मैं और भी कई प्रसंगों को बहुत ही बेहतरीन ढंग से इस तरह से जाहिर किया गया है कि पात्र अपनी प्रतिष्ठा नही खोते,लेकिन उनकी मनस्थिति सामने आ जाती है.मैं लेखक की इस कला की प्रसंशा करती हूँ.वैसे इस किताब के बारे में लिखने लायक बहुत है लेकिन आज मैं इतने में ही संतोष करती हूँ.
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आपने बहुत अच्छी समीक्षा की है ...अगर मुझे समय मिला तो मैं भी ये किताब पढने की कोशिश करूँगा
ReplyDeleteमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति