साल की शुरुवात हुई आनंद नीलकंठन की लिखी किताब “असुर:पराजितों की गाथा” से. जैसा की नाम से ही जाहिर है ये किताब बयां करती है,असुरों की गाथा,यानि रावण की कहानी. रामायण की कहानी तो हम सभी जानते हैं,पर रावण के विषय में कितना पता है हमें,कई बार ये प्रयास हुआ भी कि रावण की कहानी कही जाए,जिससे हमें ये पता चला कि रावण वेदों का ज्ञाता और शिवभक्त था;सीता हरण की बात भी सामने आती है,लेकिन रावण का बचपन कैसा था..कैसे जंगल में अभावों में पला बालक सोने की लंका तक पहुंचा..ये सारी बातें विस्तार से जानने की उत्सुकता मुझे इस क़िताब की ओर ले गयी.
आनंद नीलकंठन ने रावण की इस
गाथा या कहें रावणायन में रावण के जीवन के हर पहलु को सामने लाने का प्रयास किया
है;इस क़िताब के लिए उन्होंने क्या शोध किये इस बात का उल्लेख नहीं मिलता इसलिए
मेरा मानना है कि उन्होंने एक पात्र तथा अविस्तृत रूप से ज्ञात घटनाओं को सामने
लाने के लिए कहीं-कहीं अपनी कल्पना का सहारा भी लिया होगा.
रावण को जानना हमेशा मेरे
लिए एक उत्सुकता का विषय रहा है इसलिए ये पुस्तक मेरे लिए मुख्य आकर्षण थी,शुरुवात
बेहद अच्छी होती है जहाँ युद्ध समाप्त हो चुका है और रावण अर्धमृत-सा पड़ा हुआ अपनी
तबाह हो चुकी लंका की ओर देख रहा है और वो अपने जीवन की शुरुवात के बारे में सोचता
है. यहाँ से रावण सूत्रधार बनकर कहानी को अपने बचपन,अभाव और मृत्यु के मुंह से भी
आगे बढ़ने की चाहत की ओर ले जाता है. और फिर शुरू होता है आगे बढ़ने का सफ़र,यहाँ
लेखक एक किरदार “भद्र” को लाते हैं.जो अंत तक साथ रहता है और हर प्रमुख घटना का जाना-अनजाना
हिस्सा भी बन जाता है. रावण और भद्र के बीच अविश्वास और संदेह का रिश्ता ही दर्शाया
गया है.कुछ घटनाओं,जिसके बारे में किसी राजा को ज्ञात नहीं हो सकता,बताने के लिए
भद्र को सूत्रधार बनाया जाता है.
एक अच्छी बात ये भी है कि रावण
को सिर्फ नायक दर्शाने की कोशिश नहीं की गयी है,उसकी कमज़ोरियों,कुंठाओं और भय को
भी लेखक ने आगे लाने का प्रयास किया है.लंका दहन,विभीषण का लंका त्याग और राम-रावण
युद्ध जैसी प्रचलित घटनाओं को हमेशा हमने रामायण में ही पढ़ा है,इन सब घटनायों को लंका
की ओर से देखने का मौका इस क़िताब के जरिये मिलता है और एक अलग दृष्टिकोण सामने आता
है. एक वक़्त जब रावण अपने मंत्रियों की सलाह पर युद्ध से भागना तो चाहता है,लेकिन
फिर आत्म ग्लानी उसे रोक लेती है,वहां रावण के विचार बेहद अच्छी तरह आते हैं.कई
जगह रावण के विचार पढ़कर आपको अच्छा लग सकता है और आप सहमत हो सकते हैं लेकिन फिर
भी रामायण का असर कहें या रावण के प्रति हमारा पूर्वाग्रह कि सहानुभूति का अहसास
नहीं जग पाता..
“यदि मैंने अपने दिमाग की
सुनी होती तो शायद परिणाम कुछ और होते परन्तु जो भी हो,मैं भी मोहमाया में बंधा
जीव ही तो था.मैं भी आवेगों के पाश से मुक्त नहीं था.मैं एक रावण की भांति जीया था
और रावण की भांति ही मरूँगा.मैं राम बनाने की इच्छा नहीं रखता और न ही मुझे कोई
सम्पूर्ण पुरुष अथवा कोई ईश्वर बनना था;मेरे देश में पहले से ही देवताओं और
ईश्वरों का कोई अभाव नहीं था.इसमें अभाव था तो केवल मनुष्यों का- ऐसे लोगों का,जो
सही मायनों में केवल मनुष्य ही हों.”
इस किताब में सीता हरण की
कहानी और कारण बिलकुल अलग बताया गया है,जो मैंने पहली बार ही जाना है,और शायद इस
एक कहानी के लिए ही सही इस किताब को पढ़ा जा सकता है.शुरुवात में दो-तीन अध्याय के
बाद कुछ दो अध्याय के लिए कहानी बोझिल हो जाती है जहाँ रावण विश्व-विजय अभियान की
ओर निकलता है जहाँ लेखक ने शायद असुरों पर किये रिसर्च को पाठकों के सामने लाने का
मौका समझकर उनका सारा इतिहास बताया है,रावण अपने सैनिकों को ये इतिहास बताते हैं
और यहाँ सूत्रधार रावण खुद ये सोचता है कि सनिकों को इस बातों से कुछ लेना-देना
नहीं है और वो सिर्फ यूँ ही उसकी बातें सुन रहे हैं जबकि वास्तव में वो बोरियत
महसूस कर रहे हैं,तो मुझे लगता है शायद लेखक को इस बात का पता था कि ये अध्याय
रावण के सैनिकों की तरह पाठकों के लिए भी बोझिल होने वाला है,पर आप एक बार वो
अध्याय पार कर लेंगे तो आगे कुछ भी बोझिल नहीं है.कई जगह रावण जीवन मूल्य समझाते
हुए भी मिलते हैं..
“पहले मुझे उस बात पर ग्लानी
होती थी,परन्तु धीरे-धीरे मैं इस शर्मिंदगी का अभ्यस्त होता चला गया. व्यक्ति चाहे
तो किसी भी चीज़ का अभ्यस्त हो सकता है,भले ही वह शर्मिंदगी ही क्यूँ न हो..”
आनंद नीलकंठन का लिखा ये उपन्यास
आपको रामायण के दुसरे पहलु से अवगत करता है,जो रामायण की तरह प्रचलित नहीं है और
आपको असुरों की कहानी बताता है.इस पुस्तक में जो स्वतंत्रता असुर कन्याओं के लिए
बताई गयी है वो शायद आज की महिलाओं द्वारा मांगी जाती हैं. “असुर:पराजितों की गाथा”
एक बार अवश्य पढना चाहिए..अगर आप रामायण और राम के कट्टर पक्षधर हैं तो भी.‘रावणायन’
भी रामायण से किसी मायने में कम नहीं है.
रावण को जानने के लिए पढ़ी
गयी ये क़िताब मेरी उत्सुकता और सवालों को और बढ़ा देगी...सोचा न था....
बढिया चर्चा
ReplyDeleteउत्सुकता बढा दी है आपने इस पुस्तक को पढने की
प्रणाम
धन्यवाद अन्तर सोहिल जी,पुसतक बिलकुल पढने योग्य है.
Deleteबढिया चर्चा
ReplyDeleteसार्थक लेखन। पठनीय ब्लॉग।
ReplyDeletegindgi gio to ravan ki tarah poore vishva me nariya surkshit rahegi.
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