“किताबों से कभी गुज़रो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गए वक़्त की ड्योढ़ी में खड़े
कुछ यार मिलते हैं!”
बस कुछ इसी तरह कई किरदारों
से मुलाक़ात हुई गुलज़ार की लिखी “ड्योढ़ी” को पढ़ते हुए. यूँ तो गुलज़ार के शब्दों को
कई बार सुना है पर उन्हें पहली बार पढ़ा. ड्योढ़ी कई कहानियों का संग्रह है और हर
पहली कहानी दुसरी से बिलकुल अलग,इस एक संग्रह में वो आपको कभी सीमा पार ले जाते
हैं तो कभी आसमान की सैर करवाते हैं,कभी बचपन की मासूमियत से रुबरु करवाते हैं तो
कभी फुटपाथ पर पलती ज़िन्दगी की मुश्किलों का अहसास करवाते हैं,कभी पहाड़ों की सैर
करवाते हैं तो कभी आसमान में पतंग के साथ गोते लगवाते हैं. ज़िन्दगी में जिस तरह कई
रंगों का समावेश है उसी तरह ये संग्रह भी आपको कभी खुश,कभी भावुक तो कभी ठहाके
मारने पर मजबूर करता है.
इतनी कहानियों में से सबकी
बातें तो नहीं की जा सकतीं लेकिन एक-दो कहानियां इतनी अच्छी हैं कि उनका ज़िक्र
होना ज़रूरी है. जैसे “कुलदीप नैयर और पीर साहब” इस कहानी में कुलदीप
नैयर एल ओ सी के बारे में बात करते हुए अपनी माँ के बारे में बताते हैं जिसे
गुलज़ार साहब ने बहुत अच्छी तरह पिरोया है:
‘हमारे घर के सामने एक बहुत
बड़ा अहाता था.जिसके एक तरफ पीपल का पेड़ था और उसके नीचे एक क़ब्र थी,पता नहीं किसकी
थी पर माँ ने कह-कहकर उसे पीर साहब की क़ब्र बना दिया.माँ पीपल पर पूजा का सिन्दूर
लगतीं और साथ ही उस क़ब्र पर एक दीया रख देतीं थीं.सिन्दूर पीपल के पेड़ पर लगा
के,ऊँगली क़ब्र की ईंट से पोंछ लेतीं.आरती करतीं,चिराग़ की आंच पीपल को देकर,दीया
क़ब्र के टूटे हुए आले पर रख देतीं.भोग पीपल को लगता तो पीर साहब को भी लगता.घर पे
किसी बात से रंजिश हो जाए तो माँ पीपल से पीठ लगाके बैठ जातीं और पीरजी से बातें
करतीं.कभी रो भी लेतीं,फिर जी हल्का हो जाता और वो उठकर घर आ जातीं.पीर साहब को
साथ ले आतीं.पीर साहब की मुक्ति न होने दी उन्होंने.”
इस तरह एक और कहानी है “द
स्टोन एज” इस पूरी कहानी में युद्ध के माहौल को एक दो साल के बच्चे की नज़र से बताया गया है,जो अब उस माहौल
का आदि हो चुका है:
“मस्जिद खून की बू से भरी
हुई थी.ज़ख़्मी हाथ,कुहनियाँ,कंधे,गर्दन!पूरे सालिम आदमी बहुत कम थे.नसीर के लिए
दुनिया की नॉर्मल सूरत यही थी.उसी में आँख खोली थी.उसी में बड़ा हो रहा था. ज़मीन पर
खून देखकर उस में पैर मारना.उसके लिए ऐसा ही था- जैसे बारिश के पानी में पैर
पटकना.”
इसी तरह एक और कहानी है “घगू
और जामनी”,जिसमें एक पिंजरे के पंछी को आसमान में उड़ाती पतंग से प्यार हो
जाता है और बस वो उससे पिंजरे में बैठा-बैठा बातें करता है..बहुत ख़ूबसूरती से लिखी
गयी कहानी है ये. गुलज़ार को पढना एक अलग अनुभव रहा,शायरों की बातें अक्सर पहाड़ी
रास्तों की तरह होतीं हैं,घुमावदार,दिमागी कसरत करवातीं,पर खूबसूरत..
“एक ख्याल न दिखता है,न चुप
होता है
ज़हन के सन्नाटे में एक झींगर
है,बोलता रहता है!”
किसी लेखक की लेखनी में
ज़िन्दगी के इतने रंग मिलेंगे...सोचा न था....
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (10-04-2015) को "अरमान एक हँसी सौ अफ़साने" {चर्चा - 1943} पर भी होगी!
ReplyDelete--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत धन्यवाद रूपचन्द्र जी
Deleteरंग अनगिनत हैं जीवन के.,
ReplyDeleteदिखते सबको हैं बस लेखक बयान कर सकता है!
ये बात तो आपने बिलकुल सही कही वाणी जी
Deleteसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।