पिछले कुछ दिनों से "युगंधर" पढ़ रही हूँ.पहले तो सोची कि पूरी किताब पढने के बाद ही उसके बारे में लिखूंगी;लेकिन फ़िर मुझे लगा कि क्यूंकि ये एक बहुत ही बेहतरीन किताब है और अगर मैं इसे पूरी पढने के बाद इसके बारे में लिखूंगी.....तो शायद इसके कई अच्छे हिस्सों को इसमे शामिल करने में चूक जाऊं...जो कि मैं नही चाहती,सो मैंने इसके बारे में भाग में लिखने का निर्णय किया.
युगंधर में शिवाजी सावंत ने पहले कुछ पन्नों में श्रीकृष्ण के बारे में लिखने से पहले आने वाली कठिनाइयों के बारे में लिखा है......जिसमे उन्होंने लिखा है,"ऐसा क्यूँ होता है कि श्रीकृष्ण अधिक से अधिक निकट भी लगता है और बात-बात में वह कहीं क्षितिज के उस पार भी जा बैठता है.मन को वह एक अनामिक,अनाकलनीय व्याकुलता क्यूँ दे जाता है?इसे खोजने कि धुन मुझ पर सवार हो गई................................तब पहली ही बात मुझे प्रतीत हुई कि श्रीकृष्ण का हम सबके अन्दर अंशतः वास होते हुए भी हमें उसका आभास नही होता है.इसका कारण है कि पिछले पाँच हजार सालों से वह एक से बढ़कर एक चमत्कारों में अंतर्बाह्य लिप्त हो गया है.अंधश्रद्धाओं के जाल में फंसा हुआ है."
उन्होंने इस उपन्यास को श्रीकृष्ण और उनके जीवन से सम्बंधित व्यक्तियों के माध्यम से प्रस्तुत किया है.श्रीकृष्ण के नाम के साथ ही हमारे मन में एक नाम उभरता है....'राधा'...पहले तो सावंत जी ने अपनी इस कृति में'राधा' को शामिल नही करने की सोची थी.इस विचार को उन्होंने इन पंक्तियों में लिखा है......"राधा का दामन थामकर काव्य क्षेत्र में रसिक कृष्ण ने सदियों तक असमर्थनीय उधम मचाया.वास्तव जीवन में नारी का आदर करनेवाला श्रीकृष्ण काव्यों में स्त्रिलोलुपता की ओर घसीटा गया.बहुत सोचने के बाद मैंने राधा को अपने उपन्यास में स्थान न देने का पक्का निर्णय किया."
लेकिन जब उन्होंने 'राधा' शब्द का अर्थ जाना तो उन्होंने इसे श्रीकृष्ण के द्वारा कहलवाया और राधाकृष्ण के संबंधों को सही रूप में प्रस्तुत किया,इन पंक्तियों के द्वारा..."...'रा' अर्थात प्राप्त होना,'धा' अर्थात मोक्ष....'राधा'अर्थात मोक्षप्राप्ति हेतु व्याकुल जीव......राधा मेरी पहली स्त्री गुरु थी.स्त्रीत्व के सभी रूप और भाव-विभावों कि मुझे दीक्षा देने वाली .....कभी मौन रहकर तो कभी बहुत कुछ मुखर होकर.कभी हलके से स्पर्श से तो कभी भावदर्शी दृष्टीक्षेप से यह दीक्षा दी थी उसने मुझे-वासनारहित अतुलनीय प्रेमयोग की..मेरी प्रिय सखी...पहली स्त्री-गुरु राधिका ही थी."
इसी तरह से कई जगह पर शब्दों से दृश्यों का बहुत ही सुंदर चित्रण मिलता है.गोकुल,वृन्दावन,मथुरा,द्वारिका सभी स्थान का ऐसा चित्रण है कि पढ़कर ही वहाँ के मनमोहक दृश्यों कि कल्पना की जा सकती है...इसी तरह गोपभोज,कृष्णसोपान की रचना,गुरु आश्रम,विभिन्न रत्नों और उपाधियों की प्राप्ति का भी बहुत ही अच्छा वर्णन है.....लेकिन श्रीकृष्ण की अर्जुन और रुक्मणी से भेंट को जिस तरह से दृश्यान्कित किया गया है...उसकी तुलना करना मुश्किल है.
यहाँ मैं अर्जुन और श्रीकृष्ण मिलाप का कुछ अंश लिख रही हूँ उससे ही ये अंदाजा लगाया जा सकता है...."हम एक दूसरे को पहचान गए जन्म-जन्मान्तर के लिए..वह मेरी ही ऊंचाई का था......उसका वर्ण भी मेरे ही जैसा था...हल्का नीला....तप्त लौह-छड़ पर जल छिड़कने से फैलने वाली नीली,जामुनी छटा जैसा...वह मत्स्यनेत्र और बाण के फल की भाँती सीधी नाकवाला था.मेरी ग्रीवा की भाँती ही सुंदर ग्रीवावाला-मेरी ही प्रतिकृति.क्षण भर के लिए मुझे लगा -कहीं मैं स्वयं को दर्पण में तो नही देख रहा हूँ?...अगले ही क्षण उसमें और मुझमें जो सूक्ष्म अन्तर था,वो मेरे ध्यान में आया.मेरे मुह में दाई ओर एक दुहरा दांत था.उसके मुह में ऐसा ही दुहरा दांत बायीं ओर था.मैं मुस्कुराया,वह भी वैसे ही मुस्कुराया."
पूरे उपन्यास में हर पंक्ति.....हर शब्द पाठक को बाँध कर रखने का जादू रखते .....और पाठक ख़ुद भी इस प्यारे बंधन में सहर्ष बंधना चाहताहै. कभी श्रीकृष्ण के जीवन से यूँ जुड़ने का मौका मिलेगा.....सोचा न था.....
ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए आभार.
ReplyDelete- विजय